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प्रथम स्तबक ]
भाषानुवादसहिता ल
एको जीवः सर्व स्वशरीरं मन्यते तदपि । सुखदुःखसङ्करोऽस्मिन् शरीरभेदान्न संभवीत्येके ॥ ३९ ॥ इतरे त्वन्तःकरणोपाधिभिराश्रित्य जीवनानात्वम् । श्रुत्यैव . बन्धमुक्तिव्यवस्थितिं प्रत्यपद्यन्त ॥ ४० ।।
भूताश्चित्रपटलिखितमनुष्यदेहार्पितपटाभासकल्पा जीवाभासा इति सविशेषानेकशरीरकजीवपक्षमाह-एक इति । एकः मुख्य इत्यर्थः ॥ ३८ ॥
हिरण्यगर्भाणां प्रतिकल्पं भेदात् कतमो हिरण्यगर्भो मुख्य इत्यत्र विनिगमकाभावादेक एवाऽविशेषेण योगीव सर्व स्वशरीरमभिमन्यते । तथात्वे स्वस्मिन् पक्षे न परस्परसुखाद्यनुसंधानं प्रसज्यते, शरीरभेदात् , जन्मान्तरीयसुखाद्यनुसंधानवदिति मतान्तरमाह-एक इति । सुखदुःखसङ्करः सुखदुःखाधनुभव इत्यर्थः ॥ ३९॥
अस्मिन्नेकजीववादे बन्धमुक्तिव्यवस्थाया असिद्धेः अन्तःकरणोपाधिभेदेन 'यः सर्वज्ञः' ( जो सर्वज्ञ है) इत्यादि श्रुतिरूप प्रमाणोंसे बिम्बभूत ब्रह्मसे ही इस प्रपञ्चकी सृष्टि हुई है। और इस सृष्टिमें प्रथम उपाधिमें ब्रह्मका प्रतिबिम्बरूप जो प्रथमज (हिरण्यगर्भ ) हुआ, वही मुख्य जीव है और अन्य तो इस हिरण्यगर्भके प्रतिबिम्बभूत जीवाभास हैं जैसे चित्रपटमें आलिखित मनुष्यकी देहपर निर्मित वस्त्राभास होते हैं, इसलिए सविशेष अनेक शरीरोंमें जीव एक ही है और सब जीवभास हैं, ऐसा अन्य मत है ॥ ३८॥ __ पूर्व पद्यमें हिरण्यगर्भको मुख्य जीव बतलाया, किन्तु हिरण्यगर्भ तो प्रत्येक कल्पमें भिन्न होते हैं, इनमेंसे कौन हिरण्यगर्भ मुख्य है, इस विषयमें कोई विनिगमक (निर्णायक युक्ति ) नहीं है, अतः उस मतमें अरुचिबीज पाकर मतान्तर कहते हैं'एको जीवः' इत्यादिसे।
एक ही जीव योगीकी नाई समानरूपसे सब शरीरोंमें आत्मीयत्वकी भावना कर अभिमानी होता है; इसीसे इस पक्षमें परस्पर सुखादिके अनुभवका अनुसन्धान होनेका प्रसङ्ग नहीं आता, क्योंकि शरीरका भेद है। जैसे अन्य जन्मके सुखादिका अनुसन्धान नहीं होता, वैसे यहाँ भी शरीरभेद होनेके कारण एककै सुखादिका अनुभव दूसरेको नहीं होता ॥ ३९ ॥
एकजीववादमें बन्ध और मोक्षकी व्यवस्था नहीं होती, इससे मतान्तर दर्शाते हैं-'इतरे तु' इत्यादिसे ।
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