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सिद्धान्तकल्पवल्ली
[जीवैकत्वनानात्ववाद
४. जीवैकत्वनानात्ववादः अथ जीवः किमु नाना किमुतैकस्तत्र जीव एकोऽसौ । एकं वपुः सजीवं तद्भिनं स्वमतुल्यमिति केचित् ॥ ३७॥ एको हिरण्यगर्भो ब्रह्मप्रतिबिम्ब एव स्यात् । अन्ये तत्प्रतिबिम्बा जीवाभासा भवेयुरित्यपरे ॥ ३८॥
ब्रह्माऽविद्यया संसरति विद्यया विमुच्यत इवेति मतान्तरमाह-वार्तिककृदिति । एवं च न परमार्थे बन्धमुक्ती स्तः, 'न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धः' इत्यादिनेत्यर्थः ॥ ३६॥
एवं जीवधर्मिणि निर्णीते तद्धर्मिसंख्याविषये संशयमुपन्यस्याऽनुपदोक्तमतानुसारेण द्वितीयं पक्षं दर्शयति-अथेति । एको जीवः तेन चैकमेव शरीरं सजीवं तदन्यच्छरीरजातं स्वप्नदृष्टशरीरजातवन्निर्जीवमित्यर्थः । तदीयः सर्वोऽपि व्यवहारः स्वामिकव्यवहारवदुपपद्यते इति भावः ॥ ३७॥
'यः सर्वज्ञः' इत्यादिश्रुतिप्रामाण्याद् बिम्बभूतब्रह्मसृष्ट एव प्रपञ्चः । तत्र प्रथम उपाधौ ब्रह्मणः प्रतिबिम्बो हिरण्यगर्म एव मुख्यो जीवः । अन्ये तु तत्प्रतिबिम्ब
वार्तिककारका मत इस प्रकारका है कि जीव न तो प्रतिबिम्ब है और न अवच्छिन्न है, किन्तु स्वयं अविकृत ब्रह्म ही अविद्यावश जीवेश्वरादिभावसे संसारिताको प्राप्त हुआ-सा प्रतीत होता है और विद्यासे मुक्त हुआ-सा प्रतीत होता है, अर्थात्-व्याधकुलमें संवर्धित राजकुमारको 'तू तो राजकुमार हैं' इस प्रकारके ज्ञाताके उपदेशसे जैसे व्याधपुत्रताका बाध होकर राजपुत्रत्वका बोध होता है, वैसे ही 'तत्त्वमसि' इत्यादि गुरूपदेशसे ब्रह्मात्मतावगति होती है, यों अजातवाद ही वास्तव है अर्थात् वास्तवमें न बन्ध है और न मुक्ति है ॥ ३६॥
उक्त प्रकारसे जीवरूप धर्मीका निर्णय करके अब इस धर्मीकी संख्याक विषयमें सन्देह कर पीछे कहे गये मतोंके अनुसार द्वितीय पक्ष दर्शाते हैं-'अथ जीवः' इत्यादिसे।
जीव एक है और इस जीवसे एक ही शरीर सजीव है; उससे अतिरिक्त सम्पूर्ण शरीर स्वप्नदृष्ट शरीरोंकी नाई निर्जीव हैं, तथापि इन सब शरीरोंका व्यवहार स्वामिक व्यवहारके सदृश हो सकता है, ऐसा कई एकका मत है, [वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली. कारका यह एकजीववाद है ] ॥ ३७ ॥
इसी एकजीववादमें पक्षान्तर दर्शाते हैं-'एकः' इत्यादिसे।
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