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१४.
सिद्धान्तकल्पवल्ली
[ कारणत्ववाद
तदमेदवादिमध्ये केचिजीवे तदध्यासात् । अन्तःकरणादीनां जीवोपादानतामाहुः ॥ २१॥ इतरे तु संगिरन्ते यावयवहारसिद्धविश्वस्य । ब्रह्मैवोपादानं जीवस्तु प्रातिभासिकस्येति ॥ २२ ॥
अन्तःकरणादेर्जीवाविद्यामात्रपरिणतत्वेन तत्र जीव एवोपादानम् , 'गताः कला' इति श्रुतिस्तु म्रियमाणे तत्त्वविदि पार्श्वस्था मतेषु लयं पश्यन्तीति परदृष्टयभिप्रायेति कलाप्रलयाधिकरणभाष्ये स्पष्टत्वादित्यभिप्रेत्य तदेकदेशिमतमाहअन्तःकरणेति ॥ २०॥ ___ अन्तःकरणादौ जीवतादात्म्यस्याऽनुभवादध्यासभाष्ये जीव एव तदध्यासवर्णनाज्जीव एवोपादानमिति मायाविद्ययोरभेदवादिष्वेकदेशिमतमाह-तदभेदेति ॥२१॥
'एतस्माज्जायते प्राणः' इत्यादिश्रुतेर्व्यावहारिकाशेषप्रपञ्चस्य ब्रह्मैवोपादानम् , जीवस्तु प्रातिभासिकस्य स्वप्नपपञ्चस्य चेति मतान्तरमाह-इतरे विति । ब्रह्मणो केवल ईश्वर ही, वैसे ही अन्तःकरणादि जीवाविद्याके ही परिणाम हैं, अतः इनका उपादान जीव ही है; और 'गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठाः' यह श्रति तो जब तत्त्ववित् पुरुष मरता है तब पास बैठे हुए लोग भूतोंमें लय देखते हैं ऐसा परदृष्टिके आशयसे कहती है, यह सब कलाप्रलयाधिकरणभाष्यमें स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार वेदान्तैकदेशीका मत दिखलाते हैं--'अन्तःकरण०' इत्यादिसे।
जीवाश्रित अविद्यामात्रका परिणाम होनेसे अन्तःकरणादिकी योनि-उपादानकेवल जीव ही है, पूर्वपद्यमें उक्त जीव और ईश्वर दोनों नहीं, ऐसा कुछ वेदान्तैकदेशी कहते हैं ॥ २० ॥
इस विषयमें माया और अविद्याका अभेद माननेवालोंका मत दिखलाते हैं'तदमेद०' इत्यादिसे।
अन्तःकरण आदिमें जीवतादात्म्यका अनुभव होनेसे और अध्यासभाष्यमें जीवमें ही उनके अभ्यासका वर्णन होनेसे अन्तःकरणादिका उपादान जीव ही है, ऐसा माया और अविद्याका अभेद माननेवालोंमें से कई एक कहते हैं ॥ २१ ॥
_ 'एतस्माजायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुयोतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी' । (इसीसे-ब्रह्मसे-प्राण, मन, सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल और इस विश्वको धारण करनेवाली पृथिवी सब उत्पन्न होते हैं) इत्यादि श्रुतिसे सम्पूर्ण व्यावहारिक प्रपञ्चका उपादान ब्रह्म ही है और जीव तो प्रातिभासिक तथा स्वप्नप्रपञ्चका उपादान है-ऐसा मतान्तर दिखलाते हैं-'इतरे तु' इत्यादिसे।
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