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उन्हें ज्ञान हुआ कि मेरी एक भुजा कटी हुई है। उन्होंने दूसरे हाथसे कटे हुए कन्धेको पोंछा । उनके छूनेसे शीघ्र ही पहलेकी नाई दूसरी भुजा उसके स्थान में उगती हुई देख कर यवनके भयका ठिकाना न रहा । उसने दण्डवत् प्रणाम कर उनकी कृपाकी प्रार्थना की । योगिराज भी उसके ऊपर अनुग्रह कर कहीं चले गये ।
इस विचित्र घटनाका वर्णन शृङ्गेरी मठाधिपति श्रीशिवाभिनवनृसिंहभारतीजीने सदाशिवेन्द्रस्तुतिमें किया है
"योsनुत्पन्नविकारो बाहौ म्लेच्छेन छिन्नपतितेऽपि । अविदितममतायाऽस्मै प्रणतिं कुर्मः सदाशिवेन्द्राय ॥ पुरा यवनकर्तनखवदमन्दरकोऽपि यः
पुनः पदसरोरुहप्रणतमेनमेनोनिधिम् । कृपापरवशः पदं पतनवर्जितं प्रापयत्
सदाशिवयतीट् स मय्यनवधिं कृपां सिञ्चतु ॥"
उसी स्तोत्र में आगे उन्होंने कहा है
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'न्यपतन् सुमानि मूर्धनि येनोच्चरितेषु नामसूग्रस्य । तस्मै सिद्धवराय प्रणतिं कुर्मः सदाशिवेन्द्राय ॥'
इन अद्भुत घटनाओं और आश्चर्यजनित चरितोंको योगविद्या के रहस्यको न जाननेवाले आधुनिक लोग मिथ्या स्तुति तत्त्वों के विषय में कुछ भी परिज्ञान नहीं है, विषयमें अधिक कहना व्यर्थ है ।
समझने लगे हैं । उनका यह स्वभाव
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जिन्हें अध्यात्मही है । उनके
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सदाशिवेन्द्रजीके विषय में और भी अनेक असाधारण किंवदन्तियां प्रसिद्ध हैं, विस्तारभयसे उनका उल्लेख न कर उनकी महिमा के लिए केवल इतना ही निवेदन कर देते हैं कि विशुद्धचरित, निर्मलचित, अन्योंको अति दुर्लभ अरिषड्वर्गपर विजय प्राप्त करने एवं अध्यात्मविद्यामें असाधारण निपुणतासे साक्षात् ईश्वर के अंशभूतकी नाई विराजमान श्री शृङ्गेरीमठ के अधिपति परमहंस परिव्राजकाचार्य अभिनवनृसिंहभारती की योगिराज श्रीशिवेन्द्रसरस्वतीपर ईश्वरवत् असाधारण भक्ति थी, ऐसे महापुरुषोंकी अतुलित भक्तिके भाजन अद्भुतचरित योगिराजकी महामहिमशालिताके विषयमें किसीको भी संदेह नहीं करना चाहिए ।
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