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( ८ ) ड़ियोंका बड़ा भारी ढेर था। उस ढेरमें योगिराजने ज्योंही अपना बोझ फेंका तुरन्त उसमें तेज आग लग गई, एक क्षणमें राजाधिकारीका घर भस्म हो गया। इस आश्चर्यमय घटनाको देखकर सेवक अत्यन्त दुःखी हुए । महात्माके साथ उन्होंने जो दुर्व्यवहार किया था, उसका उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ ।
पामर लोग अणिमा आदि ऐश्वर्यसे युक्त इन सिद्ध महापुरुषको सिद्ध न जानकर 'यह उन्मत्त है' ऐसा कहते थे। निपट बालक गलियोंमें शुन्य हृदयके समान घूम रहे योगिराजको घेर कर कोई उनके केश, कोई हाथ, कोई पैरके अँगूठेको खींचकर अपना मनोविनोद करते थे । योगिराज भी उन बालकोंपर अतिशय प्रीति दर्शाते हुए अन्य द्वारा दिये गये भक्ष्य देकर उन्हें प्रसन्न रखते थे। एक दिन बालकोंने उन्हें घेर कर कहा-महाराज, सुनते हैं कि आज मदुरामें सुन्दरनाथका शृङ्गार होनेवाला है। आप हमें महेश्वरके दर्शन करानेके लिए वहां ले चलिए । यद्यपि वे लोग इस कार्यको असाध्य समझते थे, फिर भी मजाक करनेमें चूकते न थे। उनके वचन सुनकर सदाशिवने उनको सिर तथा दोनों कन्धोंपर चढ़ाकर उनसे एक क्षणके लिए आँखें बन्द करनेके लिए कहा, उन्होंने वैसा ही किया । क्षणभरमें जैसे ही उन्होंने आँखें खोली, अपनेको सदाशिवके साथ मदुराके चौकमें पाया और भक्तमण्डलीसे परिवेष्टित वृषभकी पीठपर विराजमान सुन्दरनाथके दर्शन किये। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे यह स्वप्न है या माया है या हमारे चित्तका विश्रम है, यों परस्पर कानाफूसी करने लगे। योगिराज सदाशिवेन्द्रने मी उन बालकोंको अभीष्ट भोजन आदि देकर खूब आनन्दित किया । यह क्या हुआ, इस प्रकार अत्यन्त आश्चर्य-सागरमें डूबकर महोत्सवदर्शनजनित आनन्दसे परिपूर्ण हो उन्हें बीती हुई रात्रिका ज्ञान नहीं हुआ। उत्सवके समाप्त होनेपर सदाशिवेन्द्रने पहलेकी नाईं उन्हें अपने अपने स्थानमें पहुंचा दिया। बालकोंने इस आश्चर्यमय घटनाको अपनी अपनी माताओंसे कहा, भोजनसे बचा हुआ प्रसाद मी दिखलाया और वृषभोत्सवको जिस भाँति उन्होंने देखा था, उसी प्रकार उसका वर्णन किया । यह मी किंवदन्ती है कि महाशिवरात्रि आदि महोत्सवोंमें, काशी, मदुरा, रामेश्वर आदि दिव्य क्षेत्रोंमें एक ही रात्रिमें तत्-तत् देशोंमें रहनेवालोंने उन्हें देखा था ।
किसी ब्रह्मचारीने, जिसको अक्षरपरिज्ञान भी न था, योगिराज सदाशिवेन्द्रकी भक्तिपूर्ण अन्तःकरणसे सेवा की । उसकी सेवासे प्रसन्न होकर
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