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________________ सिद्धान्तकल्पवल्ली [शब्दापरोक्षवाद अन्ये तु सङ्गिरन्ते स्वत एव ब्रह्मणोऽपरोक्षतया । तद्विषयं हि ज्ञानं वाक्यजमपरोक्षमेव भवतीति ॥ १९ ॥ स्फुटचिवमापरोक्ष्यं साक्षात्तद्ब्रह्मणोऽस्ति विषयादेः । तदभेदादू गौणमिति प्रवदन्त्यद्वैतविद्यार्याः ॥ २० ॥ wammawww बहिरसमर्थादपि भावनाप्रचयसहितादन्तःकरणान्नष्टेष्टकामिन्यादिवस्तुविषयकसाक्षात्कारो दृष्ट इति तद्वदिहापि निदिध्यासनप्रचयसहकृताद वाक्यादेव ब्रह्मविषयकः साक्षात्कारो युक्त इति दृष्टानुरोधेन समर्थयमानानां मतमाह-ध्यानेति ॥ १८ ॥ ज्ञानापरोक्ष्ये विषयापरोक्ष्यमेव प्रयोजकम् , न करणविशेषः । विषयापरोक्ष्य च वृत्तिद्वारकं स्वाभाविकं वा । तत्र 'यत्साक्षादपरोक्षाम' इति श्रुतेः ब्रह्मणः स्वभावत एवाऽपरोक्षत्वेन तद्विषयकं ज्ञानं वाक्याज्जायमानमपरोक्षमेव भवतीति मतान्तरमाह-अन्ये विति ॥ १९ ॥ न अपरोक्षवस्तुविषयकत्वं ज्ञानापरोक्ष्यम् , स्वप्रकाशस्वरूपसुखाव्यापनात् । किन्तु अभिव्यक्तचित्स्वरूपमेव । तच्च ब्रह्मण एव साक्षादस्ति, विषयादेस्त्वभिव्यक्तचैतन्याभेदागौणमिति मतान्तरमाह- स्फुटचिवमिति ॥ २० ॥ प्रचयरूप ध्यानाभ्याससे सहकृत होकर जैसे नष्ट कामिनी आदि इष्टके साक्षात्कारका हेतु देखा जाता है, वैसे ही यहाँ प्रकृतमें निदिध्यासनप्रचयरूप सहकारी कारणसे संयुक्त होकर वाक्य भी ब्रह्मविषयक साक्षात्कारका जनक हो सकता है, यो दृष्टानुरोधसे अपने पक्षका समर्थन करनेवाले कई एक मानते हैं ॥ १८ ॥ ___'अन्ये तु' इत्यादि । अन्य कहते हैं कि 'यत् साक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म' (ब्रह्म साक्षात् अपरोक्षरूप है ) इस श्रुतिसे यह ज्ञात होता है कि ब्रह्म स्वतः ही अपरोक्ष है, अतः तद्विषयक वाक्यजन्य ज्ञान भी अपरोक्ष ही होता है, क्योंकि ज्ञानकी अपरोक्षतामें केवल विषयकी अपरोक्षता ही अपेक्षित है कोई दूसरा कारणविशेष अपेक्षित नहीं है। और विषयका अपरोक्षत्व वृत्तिके द्वारा होता है या तो स्वाभाविक होता है। यहाँ ब्रह्मका अपरोक्षत्व स्वाभाविक होनेसे मूलमें 'स्वत एव' ऐसा कहा है॥ १९ ॥ ___'स्फुटचिव०' इत्यादि । ज्ञानका अपरोक्षत्व अपरोक्षवस्तुविषयकत्व नहीं है, क्योंकि स्वप्रकाशस्वरूप सुखमें अपरोक्षता होनेपर भी अपरोक्षवस्तुविषयकता नहीं है, किन्तु स्फुटचित्त्व ( अभिव्यक्तचित्स्वरूपत्व) ही अपरोक्षत्वका प्रयोजक है, ऐसा मानना उचित है। और यह अभिव्यक्तचित्स्वरूपता साक्षात् ब्रह्मकी ही है विषयादिमें तो अभिव्यक्त चैतन्यके साथ अभेद होनेके कारण गौणी है, ऐसा अद्वैतविद्याचार्यका मत है ॥ २० ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034618
Book TitleSiddhant Kalpvalli
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadashivendra Saraswati
PublisherAchyut Granthmala
Publication Year1941
Total Pages136
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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