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तृतीय स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
संन्यासे त्वधिकारं ब्राह्मणवत् क्षत्रवैश्ययोरेके | ब्राह्मणजातेरेव प्राहुस्तं नाऽन्ययोरितरे ॥ ७ ॥
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सस्य श्रवणाद्यन्नसाधनचतुष्टयान्तर्भावदर्शनात् संन्यासपूर्वकत्वावश्यकत्वादिति भावः । मतान्तरमाह — दृष्टेति । दृष्टे संभवति अदृष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वाद्विक्षेपाभावस्या - वहितबुद्धिसाध्ये सर्वत्र लोकत एवाऽङ्गत्वसिद्धेः वचनाद्वैधसंन्यासलक्षणो विक्षेपाभावो नियम्यत इति भावः ॥ ६ ॥
संन्यासस्य ज्ञानोपयोगं द्वेधा प्रदर्श्य तदधिकारिणं निरूपयति - संन्यासेत्विति । 'यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्' इत्यादिश्रुतौ सामान्यतः क्षत्रियादिसाधारण्येन संन्यास विधानादिति भावः । 'ब्राह्मणो निर्वेदमायात्', 'ब्राह्मणो व्युत्थाय', 'ब्राह्मणः प्रव्रजेत्' इत्यादिसंन्यासविधिषु ब्राह्मणग्रहणात्
श्रुतिमें उपरतिपदसे बोध्य संन्यासका श्रवण आदिके अङ्गभूत साधनचतुष्टय में अन्तर्भाव होने के कारण साधन के अनुष्ठान में संन्यासपूर्वकत्वकी आवश्यकता है । अन्य मतवाले यों कहते हैं कि जबतक दृष्ट फलका सम्भव हो, तबतक अदृष्टकी कल्पना करना ठीक नहीं है, अतः अवहित ( एकाग्र ) बुद्धिसे साध्य सब कार्यों के प्रति विक्षेपाभाव में लोकसे ही अङ्गता सिद्ध होने के कारण प्रकृत श्रवणादि साधनों में भी वैधसंन्यासलक्षण विक्षेपाभावका वच्चन के बलसे नियमन किया जाता है ॥ ६॥
संन्यासका दो प्रकारसे ज्ञानमें उपयोग दिखला कर उसके अधिकारीका निरूपण करते हैं - 'संन्यासे' इत्यादिसे |
ब्राह्मणकी नाई क्षत्रिय और वैश्यका भी संन्यासमें अधिकार है, ऐसा कई एक आचार्य कहते हैं और दूसरे आचार्यों का कहना है कि संन्यासका अधिकार केवल ब्राह्मणको ही है, अन्यको ( क्षत्रिय और वैश्यको ) नहीं है। प्रथम मतवाले मानते हैं कि 'यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्' (यदि प्राक्तन कर्मवश प्रबल वैराग्य हो, तो ब्रह्मचर्यसे ही संन्यास ग्रहण करे ) इत्यादि श्रुतियोंसे सामान्यतः क्षत्रियादिसाधारण ही संन्यासका विधान देखा जाता है । और दूसरे मतवाले कहते हैं'ब्राह्मणो निर्वेदमायात्' ( निर्वेदको ( संन्यासको ) ब्राह्मण प्राप्त करे ), 'ब्राह्मणोव्युत्थाय ' ( ब्राह्मण व्युत्थित - संन्यासी — होकर ), 'ब्राह्मणः प्रव्रजेत् ' ( ब्राह्मण, प्रव्रज्या - संन्यासदीक्षा — ग्रहण करे ) इत्यादि संन्यासविधायक श्रुतिवाक्यों में सर्वत्र ब्राह्मणपद निर्दिष्ट है एवं
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