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सिद्धान्तकल्पवल्ली [ संन्यासका विद्यामें उपयोग
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३. संन्यासस्य विद्याविनियोगवादः तर्हि कया वा द्वारा संन्यासस्योपयुक्तिराचक्ष्व । कर्माविनाश्यदुरितध्वंसद्वारेति चक्षते केचित् ॥ ५ ॥ केचिददृष्टद्वारा तस्याः श्रवणाङ्गतामाहुः । दृष्टद्वारा त्वपरे विक्षेपामावलक्षणया ॥ ६ ॥
दिषोपयोगसंभव इति मतान्तरमाह-काम्यानामित्यादिना । अत्राऽपि पूर्ववदध्याहारः ॥ ४ ॥ __ कर्मणां ज्ञानोपयोग प्रदर्य संन्यासस्य तं दर्शयितुं पृच्छति-तहाँति । उपयुक्तिः उपयोग इत्यर्थः । 'संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः' इति श्रुतेः कर्मवदुरितक्षयलक्षणचित्तशुद्धिद्वारैव संन्यासस्योपयोग इति मतेन समाधत्तेकर्माविनाश्येत्यादिना । कर्मभिरेव दुरितक्षयसिद्धेः संन्यासवैयर्यमित्याशङ्कापरिहारार्थ कर्माविनाश्येति दुरितविशेषणम् ॥ ५ ॥
मतान्तरमाह-अदृष्टेति । 'शान्तो दान्तः' इति श्रुतावुपरतिशब्दितस्य संन्या
काम्यादि कर्मोंका भी संयोगपृथक्त्वन्यायसे विविदिषामें उपयोग हो सकता है, ऐसा अन्य मानते हैं ॥४॥ __ काँका ज्ञानमें उपयोग है, यह बतला कर संन्यासका ज्ञानमें उपयोग होता है, यो प्रश्नपूर्वक दिखलाते हैं-'तर्हि' इत्यादिसे । ____ तब संन्यासका ज्ञानमें किस प्रकारसे उपयोग है ? यह कहो। 'संन्यासयोगाद् यतयः शुद्धसत्त्वाः' ( संन्यासयोगसे शुद्ध अन्तःकरणवाले यति ) इस श्रुतिसे कर्मके समान दुरितक्षयलक्षण चित्तशुद्धिके द्वारा संन्यासका उपयोग होता है, इस मतसे समाधान करते हैं-कर्मसे ही दुरितक्षय सिद्ध होता है; तब संन्यासकी व्यर्थता होगी ? इस शङ्काका परिहार बतलानेके लिए दुरितमें 'कर्माविनाश्य' यह विशेषण लगाया गया है। अर्थात् कर्मोंसे जिन दुरितोंका विनाश नहीं हो सकता, उन दुरितोंके नाशके द्वारा संन्यासका ज्ञानमें उपयोग है; ऐसा कई एक कहते हैं ॥५॥
__'केचिद०' इत्यादि । कई एक तो अदृष्ट द्वारा संन्यासको श्रवणके प्रति अङ्ग कहते हैं अर्थात् 'शान्तो दान्त उपरतः' ( शमवान, दमनशील और उपरतिमान ) इस
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