________________
द्वितीय स्तबक ]
भाषानुवादसहिता
९. औपाधिकजीवभेदेन सुखदुःखाद्यसांकर्यव्यवस्थावादः
ननु मिन्नर्जीवैः सद्वितीयता ब्रह्मणः कुतो न स्यात् । नैषां भेदाभावादुपाधिभेदात् सुखादिवैचित्र्यम् ॥ ४३ ॥ सत्यप्युपाधिभेदे तदभेदेऽस्याऽनपायितया । उपपद्यतां कथं वा सुखदुःखादिव्यवस्थितिस्तत्र ॥ ४४ ॥
wwvouuna नन्वेवमचेतनस्य जगतोऽपि मिथ्यात्वे चेतनानामपवर्गभाजां मिथ्यात्वायोगास्कथं तैः सुखदुःखादिवैचित्र्यात् परस्परं भिन्नैर्ब्रह्मणः सद्वितीयता न स्यादिति शहते-नन्विति । एवं च अद्वितीयब्रह्मणि वेदान्तसमन्वयो न युक्त इति भावः । नैवं सद्वितीयता ब्रह्मणः, जीवानां परस्परं भेदाभावात् । ननु तर्हि सुखादिवैचित्र्यं न स्यादिति चेत् , न; अन्तःकरणोपाधिभेदेन तद्वैचित्र्योपपत्तेरिति केषांचिन्मतेन परिहरति-नैषामिति ॥ ४३ ॥
ननुपाधिभेदे सत्यपि तदुपहितानां सुखदुःखाद्याश्रयाणां जीवानामभेदानपायात् कथं सुखदुःखादिव्यवस्थोपपद्यतामिति शङ्कते-सतीति। तत्रेत्युत्तरेणाऽन्वयः ॥४४॥ समसत्ताक धर्म ही स्वविरुद्ध धर्मको हरता है, ऐसा नियम बन जानेके कारण जगत्समानसत्तावाले मिथ्यात्वसे सत्यत्वका प्रतिक्षेप ( विनाश ) सिद्ध हो सकता है। ऐसा कहते हैं ॥४२॥
शङ्का करते हैं-'ननु' इत्यादिसे ।
यदि शङ्का हो कि अचेतन जगत् भले ही मिथ्या हो, परन्तु मुक्त होनेवाले चेतन जीवोंको मिथ्या मानना युक्त नहीं है, इस परिस्थितिमें सुख, दुःख आदिके वैचित्र्यसे परस्पर भिन्न उन जीवोंके द्वारा ब्रह्म की सद्वितीयता क्यों न होगी? तो ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि उन जीवोंका भेद है ही नहीं। सुख, दुःख आदिका वैचित्र्य जो दीखता है, सो तो उपाधिभेदसे है। अन्तःकरणरूप उपाधिके भेदसे सुखादिवैचित्र्यकी उपपत्ति हो सकती है, अतः इन जोवोंसे ब्रह्मकी सद्वितीयता नहीं होती। इसलिए अद्वितीय ब्रह्ममें सम्पूर्ण वेदान्तवाक्योंका समन्वय सर्वथा युक्त है ॥ ४३ ॥ ___ शङ्का करते हैं कि उपाधिका भेद होनेपर भी तदुपहित जीवोंका, जो सुखदुःखादिके आश्रय हैं, जब अभेद बना रहता है, तब सुखादिककी व्यवस्था कैसे हो सकती है ? यो शंका करते हैं-'सत्यप्युः' इत्यादिसे ।
उपाधि-भेदके होनेपर भी उपहितका अभेद ज्यों का त्यों होनेके कारण सुख, दुःख आदि की व्यवस्था उपपन्न कैसे होगी? [ तत्रशब्दका उत्तर श्लोकके साथ अन्वय है। ] ॥४४॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com