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* श्रीः
भूमिा
इस जगज्जाल में बुरी तरह उलझे हुए सभी प्राणियों की एक ही इच्छा है, वह यह कि हमें परम सुखकी प्राप्ति हो और हो दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति । किन्तु ऐसी इच्छा के सदा जागरूक रहनेपर भी वे अभिलषितपरमसुखप्राप्तिका उपाय न जाननेके कारण सुखसाधन समझ कर जिस किसी दुःखदायक कर्म में निरत हो जाते हैं और लगातार भवसागर में गोते खाते रहते हैं । उन्हीं के उद्धार के लिए भगवती श्रुतिने अधिकारानुरूप कर्म, उपासना और ज्ञानका निर्देश किया है । यह तो निर्विवाद ही है कि परम सुखकी प्राप्तिका मुख्य साधन जीव-ब्रह्मक्यज्ञान ही है । उक्त ज्ञानके साक्षात् साधन हैं उपनिषद | पर उनका अर्थ अति गम्भीर है, सहजमें उसकी प्रतीति नहीं हो सकती। उनके अर्थके निर्णय के लिए महर्षि श्रीबादरायणने ब्रह्मसूत्रोंकी रचना की । कालक्रमसे उनके अध्ययनाध्यापन- परम्परा के उच्छिन्न हो जानेसे सूत्रोंके अर्थज्ञानमें कठिनाई आने लगी और अनेक विरोध प्रतीत होने लगे । उक्त कठिनाइयोंको दूर करनेके लिए भगवान् श्रीशङ्कराचार्यजीने सूत्रोंके ऊपर याथार्थ्य के प्रतिपादक प्रसन्न गम्भीर शारीरकभाष्यकी रचना की । उक्त भाष्यका अवलम्बन कर जीवब्रह्मैक्यका प्रतिपादन करनेवाले अनेक वेदान्तग्रन्थों की रचना हुई । मुख्य विषय में सबका ऐकमत्य होनेपर भी अवान्तर विषयों में मतभेद होनेसे अद्वैतवेदान्तमें अनेक वादोंकी सृष्टि हुई। विश्वविश्रुतवैदुष्य स्वनामधन्य श्रीमदप्पयदीक्षितने 'वेदान्तसिद्धान्तलेशसंग्रह' में उन वेदान्तसिद्धान्तरलोंका बड़े विस्तार के साथ गुम्फन किया । प्रस्तुत सिद्धान्त कल्पवल्ली में योगिराज श्रीसदाशिवेन्द्रसरस्वतीने उन्हीं सिद्धान्तोंका संक्षेपमें २१४ आर्याओं द्वारा सुसरल और हृदयंगम रीति से प्रतिपादन किया है । श्रीपरमशिवेन्द्रसरस्वती के शिष्य * योगिराज श्रीसदाशिवेन्द्र सरस्वतीकी
* निरवधिसंसृतिनीरधिनिपतितजनतारणस्फुरनौकाम् ।
परमतभेदघुटिकां परमशिवेन्द्र |र्यपादुकां नौमि ॥ ( आत्मविद्याविलास २ ) जड़: क्वाऽहं बालः क्व च गहन वेदान्तसरणि•
तथाप्याम्नायार्थं परमशिवयोगीन्द्रकृपया ॥
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( ब्रह्मसूत्रवृत्तिकी समाप्तिका पद्य )
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