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श्वेताम्बर तेरापंथ-मत समीक्षा। ** * * *
* * * * * 'साधु-मुनिराज किसी त्रस-स्थावर जीवको हणे नहीं, हणावे नहीं और अन्य कोई हणे उसकी अनुमोदना करे नहीं। किसीने किसी जीवको बांधा ह्ये, तो साधु छोडे नहीं, छोडावे नहीं, और छोडे उसको अच्छा जाने नहीं । यह साधुका आचार है। इसी ताह श्रावक भी तीर्थंकरके छेटे पुत्र हैं, इस लिये वे भी कोई कीसी जीवको मारता हो तो, उस जीवको छोडे नहीं, छोडावे नहीं और छोडे उसकी अनुमोदना करे नहीं। इसमें कारण यह दिखलाया कि-यदि कोई शख्स, किसी जीवको मारता हो, और उसको छोडाया जाय, तो प्रथम तो अंतराय दोष लगेगा । तथा छोडानेके बाद वह जीव हिंसा करेगा, मैथुन सेवेगा, पत्र-पुष्प-फल तोडेगा, भक्षण करेगा वगैरह सब पाप छोडानेवालेके शिर होता है। अर्थात् जैसे किसी वेडेमें गाय-बेल वगैरह भरे हुए हैं, और उसके पास अग्नि लगी हो, तो उस वंडेका दरवाजा खोल करके उन जानवरोंको बाहर नहीं निकालने चाहिये । क्योंकि-उनको निकालेंगे तो वे गाय-बेल वगैरह पशु मैथुन सेवेंगे-हिंसा करेंगे वह पाप दरवाजे खोलनेवालेके शिर पर है। इसके उपरान्त यह भी प्ररूपणाकी कि-साधुके सिवाय कोई संयति नहीं है। अतएव, सिवाय साधुके और किसीको देनेमें निर्जरा या पुण्य होता ही नहीं है । " .
इस प्रकार भिखुनजीने दया और दानका निषेध किया।
इस प्ररूपणा चार मनुष्य प्रधान थे । भीखुनजी तथा जयमलजीका चेला बखताजी, ये दो साधु तथा बच्छराज ओसवाल और लालजी पोरवाल, ये दो गृहस्थ । इन चारोंने मिल करके यह प्ररूपणाकी।
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