________________
७०
वताम्बर तेरापंथ-मत समीक्षा ।
अत्ताए भविस्सर ।” पृष्ठ १७१ से।
भावार्थ:-जिस समय सूर्याभदेव सूर्याभ विमानमें उत्पन हुआ, उस समय उसको ऐसा विचार हुआ कि-मेरा पूर्व हित-पश्चात् हित तथा पूर्वपश्चात् हित क्या है ? इस प्रकार विचार करते हुए सूर्याभदेवको जान करके, उसके पास उसके सामानिक सभाके देवोंने आकरके सविनय इस प्रकार कहा:
__'हे देवानुप्रिय ! सूर्याभविमानमें सिद्धायतनमें जिनोत्सेध प्रमाणमात्र १०८ जिन प्रतिमाएं हैं । तथा सुधर्मासभामें मानवत चैत्य-स्तंभमें वज्रमय गोलडब्बेमें जिनके अस्थि (दाढावगैरह) हैं, वे आपसे तथा दूसरे अनेक देव-देविओंसे अर्चनीय, वंदनीय, नमस्यनीय, पूजनीय, सम्माननीय यावत् कल्याण-मंगल देव चैत्यकी तरह पर्युपासनीय हैं। तथा वे ही पतिमाएं एवं दादाएं आपको परंपरासे पूर्वहितके लिये, पश्चात् हितके लिये, मुखके लिये, क्षमाके लिये, मोक्षके लिये होंगी।'
उपयुक्त पाठमें प्रत्यक्ष जिन प्रतिमा तथा दाढा (भगवानके अस्थि वगैरह) अर्चनीय-पूजनीय-वंदनीय कहीं है। परन्तु दूसरी वस्तु दिखलाई नहीं है । इसके सिवाय आप लोग भवकी परंपराका अर्थ करते हैं, तो क्या पूजा करनेसे भवकी परंपरा बढती है, ऐसा कहना चाहते हो ? या भवकी परंपरामें हितकर कहना चाहते हो ? । यदि भवकी परंपरा बढे, ऐसा अर्थ करोगे, तो वह ठीक नहीं है । क्योंकि-सूर्याभदेवने प्रभुकी पूजा तथा नाटक वगैरह किये, तिसपर भी एकावतारी महाविदेह क्षेत्रमें 'दृढ प्रतिज्ञ' नाम धारण करके चारित्र लेकर
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com