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बाह्य पदार्थोंको अपने नहीं समझता है अन्य ही. समझता है तो उसका पहला कार्य होना चाहिये कि वह उनका साथ छोड दे । क्योंकि जो मनुष्य सचमुच में विषको प्राणघातक समझ लेता है वह फिर उस विषको कभी नहीं खाता है । तदनुसार जो मनुष्य परिग्रहको दुःखदायक समझ जाता है वह फिर उनको छोड भी अवश्य देता है । यदि वह उनको न छोडे तो समझना चाहिये कि उसने परिग्रहको दुःखदायक समझा ही नहीं यदि बाह्य पदार्थ परिग्रह त्याज्य नहीं हैं तो फिर तत्वार्थाधिगमसूत्र के सातवें अध्यायके २४ सूत्र ' क्षेत्रवास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः " इस सूत्र में धन धान्यादिक बाह्य पदार्थों के ग्रहण करनेमें परित्याग व्रतके अतीचार ( दोष ) क्यों माने गये हैं
यदि बाह्य पदार्थों का विना त्याग किये भी कोई मनुष्य अपरिग्रही ( परिग्रहत्यागी ) हो सकता है तो कोई मनुष्य स्त्रियोंके साथ भोग वि लास करते हुए भी पूर्ण ब्रह्मचारी क्यों नहीं हो सकता ? यहां जो आक्षेप समाधान हों वे ही आक्षेप समाधान उक्त पक्षमें समझने चाहिये ।
एवं गृहस्थलिंगसे मुक्ति प्राप्त होनेमें कर्मसिद्धान्त भी बाधक हैं क्योंकि गृहस्थके अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम रहता है तथा प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन कषाय का उदय रहता है । इसी कारण गृहस्थ पंचमगुणस्थानवर्ती होता है। पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक जब तक प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन कषायका क्षयोपशम तदनन्तर क्षय न करे तब तक वह यथाख्यातचारित्र धारी, वीतराग भी नहीं हो सकता है।
श्री आत्मानंद जैन पुस्तक प्रचारक मंडल आगरा द्वारा दामोदर यन्त्रालय से प्रकाशित पहले कर्मग्रंथ के ४८ वें पृष्ठपर अनंतानुबंधी यदि कषायके विषय में कमसे लिखा हुआ है कि
" सम्माणुसन्वविरई अहाखायचरित्त वायकरा " ॥ १२ ॥ यानी - अनंतानुबन्धी सम्यग्दर्शनका, अप्रत्याख्यानावरण देश
व्रतका प्रत्याख्यानावरण मुनित्रतका तथा संज्वलन कषाय यथाख्यात
"
after घात करने वाली है ।
तदनुसार गृहस्थ के महात्रत होना भी असंभव है । और जब कि
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