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मानसिक वैराग्यको स्थिर रखनेवाला तथा उसको पुष्ट करनेवाला बाह्य परिग्रह का संसर्गत्याग है। मनुष्य जब तक उसका पूर्णतया परित्याग न करे तब तक राग द्वेषपर विजय नहीं पा सकता। ___इसी कारण अन्य साधारण मनुष्योंकी बात तो एक ओर रहे किंतु तीर्थकर सरीखे मुक्ति मणीके निश्चित भर्तार भी जब तक समस्त बहिरंग परिग्रह छोड साधुदीक्षा ग्रहण नहीं कर लेते हैं तब तक उनको वीतरागता प्राप्त नहीं होने पाती । चौवीस तीर्थकरोंमेंसे कोई भी ऐसा तीर्थकर नहीं हुआ जिसने परिग्रहका त्याग किये विना ही केवलज्ञान पा लिया हो। जब तीर्थकर सरीख उत्कृष्ट चरम शरीरीके लिये यह बात है तो फिर क्या रतिसारकुमार सरीखे साधारण मनुष्योंको वीतरागता पाने के लिये परिग्रह त्याग देना आवश्यक नहीं ?
यदि गृहस्थ अवस्थामें भी मनुष्यको मुक्ति प्राप्त हो सकती है तो फिर साधु बनने, बनाने, उपदेश करने, प्रेरणा करनकी कोई आवश्यकता नहीं । क्योंकि ऐसा कोई बुद्धिमान मनुष्य नहीं जो कि घरमें मिल सकनेवाले पदार्थको प्राप्त करनेके लिये अनेक कष्ट उठाता हुआ जंगलोंकी धूल छानता फिरे । यदि गृहस्थ मनुष्योंका विराट परिग्रह मुक्ति प्राप्त करने में बाधा नहीं डाल सकता तो फिर स्थविरकल्पियों के वस्त्र, पात्रादिक पदार्थ भी वीतरागतामें क्या विधन उत्पन कर सकते हैं? फिर समस्त वस्त्रपात्रत्यागी नम जिनकल्पी साधु उनसे ऊंचे क्यों माने गये हैं ! ___यहां कोई मनुष्य यह कुतर्क उपस्थित करे कि "मूर्छा परिग्रहा" तत्वार्थाधिगमसूत्रके इस सूत्रानुसार धन, धान्य, घर, पुत्रादिका नाम परिग्रह नहीं है किन्तु उन पदार्थोंमें ममत्वभाव (मोहभाव) रखनेका नाम ही परिग्रह है । इस कारण जिस मनुष्यके हृदयसे वाह्य पदार्थोंका प्रेम दूर होगया है वह वस्त्र, भाभूषण आदि पहने हुए भी, घरके भीतर स्त्री पुत्रादिमें बैठा हुआ भी परिग्रही नहीं कहा जा सकता है । ___इस तर्कका उत्तर यह है कि बाद्य पदार्थों में उस मनुष्यको मोहभाव नहीं रहा है यह वात उसके किस कार्यसे मान ली जावे । यदि वह
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