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उसको महाव्रत भी नहीं हो सकते तो यथाख्यात चारित्र और उसके आगे उसको मुक्ति मिलना आकाशके फूल के समान असंभव है ।
समझमें नहीं आता कि कर्मसिद्धान्त के विरुद्ध इस गृहस्थ मुक्तिकी कल्पना निराधाररूपसे श्वेताम्बरीय ग्रंथोंने कहांसे करकी ? थोडासा विचार करनकेी बात है कि यदि गृहस्थदशासे ही मुक्ति मिल सकती है तो उच्च त्यागकी और साधु बनकर वननिवास करने तथा कायक्लेश, दुर्द्धर परीषs सहने, आतापनादिक योग करने की क्या आवश्यकता है । जैसे मरुदेवी माता हाथीपर चढे चढे विना कुछ त्याग किये मुक्त हो गई, रतिसार स्त्रियोंके बीच बैठा हुआ ही मुक्ति चला गया उसी प्रकार 66 कोई मनुष्य यदि अपनी स्त्रीके साथ विषयसेवन करते हुए वैराग्य भावोंकी वृद्धिसे मुक्त हो जावे " तो ऐसे कथनका निषेध हमारे श्वेतांवरी भाई किस आधारसे कर सकते हैं ? क्योंकि वे जो जो विघ्न बाधाएं यहां खड़ी करेंगे वे ही उनके पक्ष में खडी होंगी ।
फिर एक और आनंदकी बात यह हैं कि रतिसारको केवलज्ञान हो जानेपर देवने आकर उसके वस्त्र आभूषण उतार उसका साधुवेष बनाया । अर्थात् रतिसार केवलज्ञानी तो हो गया किंतु वस्त्र आभूषण पहने ही रहा । इस मोटी त्रुटिको अल्पज्ञ देवने आकर दूर किया । इस वृत्तान्त से भी बुद्धिमान मनुष्य तो यह अभिप्राय निकाल ही सकता है कि विना बाह्य परिग्रह त्याग किंय मुक्ति नहीं हो सकती । अत एव गृहस्थ अवस्था से मुक्ति मानना ठीक नहीं। मोटी भूल है ।
इस कारण सारांश यह है कि प्रथम तो गृहस्थ समस्त परिग्रहका त्यागी नहीं इस कारण उसको मुक्ति नहीं हो सकती ।
दुमरे गृहस्थ पंचम गुणस्थानवर्ती होता है, मुक्ति चौदहवें गुणस्थानके अनंतर होती है इसलिये गृहस्थ अवस्था से मुक्ति नहीं होती । तीसरे - प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायका गृहस्थ के उदय रहता है इस कारण गृहस्थको यथाख्यात चारित्र न होनेसे मुक्ति नहीं हो सकती है ।
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