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श्री भद्रबाहुस्वामी रोगोंके घर इस शरीरको समाधिपूर्वक छोडकर देव व देवियोंसे नमस्कृत स्वर्गलोक में पहुंच गये ।
दीप्तिमान मुनित्रारित्रसे विभूषित चन्द्रगुप्त मुनि व हॉपर अपने गुरु श्री भद्रबाहु स्वामीके चरणोंको लिखकर उनकी सेवा करने लगे।
इसके आगे इसी ग्रंथमें श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिका वर्णन पीछे लिखे अनुसार किया है।
इसके प्रकार पुरातन ग्रंथोंसे भी दिगम्बर संप्रदाय के अनुसार ही श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिका वृत्तान्त मिलता है।
विदेशी इतिहासवेत्ताओंकी सम्मति. मिस्टर बी. लुईस राइस महाशय ऐप्रिग्राफिका कर्नाटिका में लिखते हैं कि
चन्द्रगुप्त निःसन्देह जैन था और श्री भद्रबाहु स्वामीका समकालीन तथा उनका शिष्य था।
इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलिजन में लिखा हुभा है कि " सम्राट चन्द्रगुप्तने बी. सी. २९०में (ईसवीय सन्से २९० वर्ष यहले) संसारसे विरक्त होकर मैसूर प्रांतके श्रवणवेलगुलमें जिनदीक्षासे दीक्षित होकर तपस्या की और तपस्या करते हुए स्वर्गको पधारे।
इस प्रकार इस विषयमें जितनी भी खोज की जावे ऐतिहासिक सामग्री हमारे कथनको ही पुष्ट करती है । इस कारण निष्पक्ष पुरातत्व खोजी महानुभावोंको स्वीकार करना पडेगा कि श्री भद्रबाहु स्वामी तथा सम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें बारह वर्षका घोर दुष्काल पडा था उसके निमित्तसे जो जैन साधु उत्तरप्रांतमें रहे वे विकराल कालके निमित्तसे वस्त्र, पात्र, लाठी धारी हो गये और जो साधु श्री भद्रबाहु स्वामीके साथ दक्षिण देशको चले गये वे पहले के समान नग्न वेशमें दृढ रहे । अर्थात् बारह वर्षके दुष्कालने सम्राट चन्द्रगुप्के समयमें जैनमतमें श्वेताम्बर नामक एक नवीन पंथ तयार कर दिया।
इस प्रकार विक्रम संवत् से भी लगभग २.३ वर्ष पहले लिखे
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