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गये इस लेख से भी यह बात सत्य प्रमाणित होती है कि श्री भद्रबाहु स्वामीके समयमें भारतवर्षके उत्तर प्रान्तमें १२ वर्षका घोर दुष्काल पडा था और उस समय भद्रबाहु स्वामी अपने मुनिसंघको साथ लेकर दक्षिण देशों में विहार कर गये थे।
इसके सिवाय " दिगम्बर मत विक्रम सं. १३८ से प्रचलित नहीं हुआ बरिक विक्रम संवतसे भी पहले विधमान था " इस बातको सिद्ध करनेके लिये अनेक पुष्ट सत्य प्रमाण विद्यमान हैं । देखिये, ज्योतिष शासके प्रख्यात विद्वान् वराहमिहिर राजा विक्रमादित्य की ( जिनके कि स्मारक रूपमें विक्रम संवत उनकी मृत्यु होनेके पीछे चला है।) राजसभाके नौ रत्नों में से एक रत्न थे। जैसा कि निम्न लिखित श्लोकसे भी सिद्ध होता है
धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशंकुबेतालभट्टघटसर्परकालिदासाः । रख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः समायां
रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ।। इन ही वराहमिहिरने अपने प्रतिष्ठा काण्डमें एक स्थानपर यह लिखा है कि
विष्णोर्भागवता मयाश्च सवितुर्विप्रा विदुर्ब्राह्मणां, मातृणामिति मातृमंडलविदः शंभोः समस्माद्विजः।। शाक्याः सर्वहिताय शान्तमनसो नग्ना जिनानां विदु. ये यं देवमुपाश्रिता स्वविधिना ते तस्य कुर्युः क्रियाम् ॥
अर्थात्-वैष्णव लोग विष्णुकी, मय लोग ( सर्योपजीवी ) विप्र लोग ब्राह्मण क्रियाकी, मातृमंडलकी जानकार ब्रह्माणी, इन्द्राणी भादि माताओंकी उपासना करें । बौद्धलोग बुद्धकी उपासना करें। और नग्न लोग ( दिगम्बर साधु ) जिन भगवानका पूजन करें। अभिप्राय यह है जो जिस देवके उपासक हैं वे विधिपूर्वक उसकी उपासना करें।
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