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वैयावृत्यके साथ कटवप्र ( कलवप्पू) पर्वतपर रहा था।" ___श्री हरिषेणाचार्यकृत " बृहत्कथाकोष " नामक ग्रंथमें भी जो कि संवत् ९३१ मे बना है श्री भद्रबाहुस्वामी और सम्राट चन्द्रगुप्तके विषयमें उपर्युक्त लेखके अनुसार ही उल्लेख है।
श्री रत्ननन्द्याचार्यने सं० १४५० में जो भद्रबाहु चरित्र नामक ग्रंथ बनाया है उसमें लिखा है
चन्द्रावदातसत्कीर्तिश्चन्द्रवन्मोदकर्तृणाम् । चन्द्रगुप्तिनृपस्तत्राचकचारुगुणोदयः । ७ ।
द्वितीय परिच्छेद. राजस्त्वदीयपुण्येन भद्रबाहुः गणाग्रणीः । आजगाम तदुद्याने मुनिसन्दोहसंयुतः ॥ २१ ॥
तृतीय परिच्छेद चन्द्रगुप्तिस्तदावादीद्विनयान्नवदीक्षितः । द्वादशाब्दं गुरोः पादौ पर्युपासेतिभक्तितः ॥ २॥ भयसप्तपरित्यक्तो भद्रबाहुमहामुनिः । अशनाय पिपासोत्थं जिगाय श्रममुल्वणम् ॥ ३७ ॥ समाधिना परित्यज्य देहं गेहं रुजां मुनिः। नाकिलोकं परिप्राप्तो देवदेवीनमस्कृतः ॥ ३८ ॥ • चन्द्रगुप्ति निस्तत्र चञ्चच्चारित्रभूषणम् ।
आलिख्य चरणौ चारू गुरोः संसेवते सदा ॥ ४० ॥ भावार्थ:-चन्द्रसमान उज्वल कीर्तिधारक, चन्द्रमातुल्य मानन्द करनेवाले, सुन्दर गुणोंसे विभूषित महारान चन्द्रगुप्त उज्जयनीमें हुए ।
हे गजन् ! आपके पुण्यबलसे मुनिसंघके नेता अपने संघसहित नगरके बाहर उद्यानमें आये हैं। ___तब नवदीक्षित चन्द्रगुप्त मुनि विनयसे बोले कि मैं बारह वर्षसे अपने गुरू श्री भद्रबाहु स्वामीके चरणकमलोंकी उपासना करता हूं।
तदनन्तर सात भय छोडकर महामुनि भद्रबाहु स्वामीने बलवती क्षुधा और पिपासाको रोका।
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