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मोहनीय कर्म जब रहता है तब साता वेदनीय के उदयसे इन्द्रियजनित सुख होता है जो कि राग भावसे वेदन किया जाता है।
और असाता वेदनीय कर्म के उदयसे जो दुख होता है उसका द्वेष भावसे वेदन किया जाता है । केवली भगवान के जब कि राग, द्वेष ही नहीं रहा तब इंद्रियसुखदुखरूप वेदन ही कैसे होवे ? और जब दुःखरूप वेदन नहीं, फिर भूख कैसे लगे ? जिससे कि केवलीको भोजन अवश्य करना पडे । भूख का शुद्ध रूप बुभुक्षा है जिसका कि अर्थ " खानेकी इच्छा " होता है। केवली के जब मोहनीय कर्म नहीं तब उसके खानेकी इच्छा भी नहीं हो सकती । खानेकी इच्छा उत्पन्न हुए विना उनके भूख का कहना व्यर्थ तथा असंभव है । इस लिये भी केवली के कवलाहार नहीं बनता है।
भूख लगे दुख होय अनंतसुखी
कहिये किमि केवलज्ञानी. ३ अन्य सव बातोंको एक ओर छोडकर मूल बातपर विचार चलाइये कि अनंतसुखके स्वामी अईत भगवानको भूख लग भी कैसे सकती है ? क्योंकि भूव लानेपर जीवोंको बहुत भरी दुःख होता है। केवल ज्ञानीको दुःख लेशमात्र भी नहीं है। इस कारण हमारे श्वेताम्बरी भाई या तो केवली भगवानको "अनंतसुखधारी" कहें- भूख वेदनासे दुखी न बतलावें । अथवा केवलीको भूख की वेदनासे दुखी होना कहें इसलिए अनन्तसुखी न कहें । बात एक बनेगी दोनों
नहीं।
भूखकी वेदना कितनी तीन दुःखदायिनी होती है इसको किसी कविने अच्छे शब्दोंमें यों कहा है
आदौ रूपविनाशिनी कृशकरी कामस्य विध्वंसिनी, ज्ञानभ्रंशकरी तपःक्षयकरी धर्मस्य निर्मूलिनी । पुत्रभ्रातृकलत्रभेदनकरी लज्जाकुलच्छेदिनी,
सा मां पीडति विश्वदोषजननी प्राणापहारी क्षुधा। अर्थात्-क्षुधा पीडित मनुष्य कहता है कि भूख पहले तो रूप
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