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सुदी १२ रविवार संवत् १९३९में छपवाई है। इस कारण यह स्वयं सिद्ध हो गया कि यह पुस्तक श्री श्वे० आचार्य आत्मारामजीके जीवनकालमें यानी उनके सामने ही छप गई थी। क्योंकि आत्मारामजीका स्वर्गवास संवत १९५३ में हुआ था। इस कारण उनके देहावसान होनेके १४ चौदह वर्ष पहले उपर्युक्त पुस्तक छप गई थी।।
अनेक सज्जनोंने कहा था कि श्वे. आचार्य आत्मारामजीने दिगम्बरीय कवि पं. धानतरायजी आदिके बनाये हुए पदोंकी नकल करके अपने नामसे अनेक पद लिख दिये हैं। इस बातकी सत्यता जांचने के लिये हमने उक्त पुस्तकके पदोंका स्व० कविवर द्यानतरायजी विरचित द्यानतविलासके पदोंके साथ मिलान किया तो उन महाशयों का कथन सत्य पाया। मुनि आत्मारामजीने द्यानतरायजी के पदोंकी नकल की है। अन्य भी दिगम्बरी कवियों की कविताओंकी नकल की हो इस अनुमानको हम सत्य या असत्य नहीं कह सकते क्योंकि इस विषयमें हमने अधिक अनुसन्धान नहीं किया ।
इस विषयमें पाठक महानुभावोंके समक्ष एक पद उपस्थित करते हैं जो कि स्व. पं० द्यानतरायजीने बनाया था
और उसकी मुनि आत्मारामजीने नकल की। इसके पहले पाठकोंको यह बतलाना आवश्यक है कि स्वर्गीय पं. द्यानतरायजीका जन्म विक्रम सं. १७३७ में हुआ था और उन्होंने द्यानाविलास संवत् १७८० में बनाकर समाप्त किया था। श्वेताम्बरीय आचार्य आत्मारामजीका जन्म संवत् १८९३ में हुआ था। इस प्रकार स्वर्गीय कविवर द्यानतरायजी आत्मारामजीसे १५० डेढसौ वर्ष पहले हुए हैं।
उन्होंने अपने विलासमें एक यह पद लिखा हैब्रह्मज्ञान नहीं जाना रे भाई, ब्रह्मज्ञान नहीं जानारे । इसी पदकी नकल करके मुनि आत्मारामजी ने यह पद बनाया हैब्रह्मज्ञान नहीं जान्यारे तने, ब्रह्मज्ञान नहीं जाया रे । द्यानतरायजीने लिखा है कितीन लोकके सब पुद्गल तें, निगल निगल शालाना रे।
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