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इत्यादि दो-चार ही नहीं किन्तु अनेक बातें इस कल्पसूत्र में ऐसी लिखी हुई हैं जिनपर कि अच्छा आक्षेप हो सकता है । किन्तु हमने यहां पर केवल तीन बातोंका ही दिग्दर्शन कराया है । पाठक स्वयं न्याय कर लेवें कि यह कल्पसूत्र ग्रंथ भी सच्चा आगम कहा जा सकता हैं अथवा नहीं ?
३ - प्रवचनसारोद्धार ग्रंथ मी जो कि अनेक भागों में प्रकाशित हुआ है, श्वेतांबर समाजमें एक अच्छा मान्य प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है । इसकी प्रामाणिकताका भी परिचय लीजिये | इस ग्रंथके तीसरे भाग में ५१७ वें पृष्ठपर लिखा है कि
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भक्ष्य ( खाने योग्य ) भोजन १८ अठारह प्रकारका होता है उनमें पाँचवा भोजन जलचर जीवोंका ( मछली आदिका) मांस, छठा भोजन थलचर जीवोंका ( हरिण आदिका) मांस, सातवां नभचर जीवका (कबूतर आदि पक्षियोंका ) मांस है । पंद्रहवां भोजन पान यानी शराब आदि है । "
इसकी मूलगाथा ४२७ वीं ४३१ वीं इस प्रकार है । " जलथलख यहरमं साइतिभिजूसोउजीरयाई जुओ । मुग्गरसो भक्खाणिय खंडीखज्जयपमुक्खाणि । " ॥ ४२७|| " पाणं सुराइयं पाणियंजलं पाणगं पुणो इच्छ । taraणय मुहं सागो सोतक सिद्धजं ॥ ४३१ ॥ इस प्रकार के भोजन में मांस, मदिराका समावेश किया है । जब कि मांस, मदिरा सरीखे पदार्थ ग्रंथकार की दृष्टिमें भक्ष्य भोजन हैं तो पता नहीं, अभक्ष्य भोजन कौनसे होंगे ?
इसी प्रवचनसारोद्धार के तीसरे भागके ४३ वें द्वारमें २६३ वें पृष्ठएर ६८३ व गाथामें साधुके लिये पांच प्रकार चमडा बतलाया गया -गाथा यह है
4 अय एल गावि महिसीमिगाणमजिणं च पंचमं होइ । उलिगालग वद्धे कोसग कित्तीअ वीयं तु । ६८३ । " इस गाथा के अनुसार महाव्रतधारी साधु विशेष अवसरपर जूते के
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