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तत्वज्ञानको सुरक्षित रखनेके लिए जेठ सुदी पंचमी के दिन उस ज्ञानको लिखकर शास्त्रोंके रूपमें निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया । तदनुसार उस दिन से जैन ग्रंथों की रचना आरम्भ हुई । उससे पहले न तो कोई जैनशास्त्र लिखा गया था और न लिखनेकी पद्धति तथा आवश्यकता थी ! इस कारण आचारांग आदि ग्रंथोंको गौतमगणधर निर्मित कहना गलत है ।
दूसरे ये श्वतां वरीय ग्रंथ इस कारण भी गणधरप्रणीत द्रादशांगरूप नहीं कहे जा सकते हैं कि ये बहुत छोटे हैं। कोई भी ग्रंथ ऐसा नहीं जो कि कमसे कम एक पदके बराबर भी हो 1 क्योंकि सिद्धांत ग्रंथों में एक मध्यम पदके अक्षरोंकी संख्या सोलह अरब, चौतीस करोड, तिरासी लाख, सात हजार, आठसौ अठासी ( १६३४८३०७८८८ अक्षर ) बतलायी गई हैं. जिसके कि अनुष्टुप् छन्द ( लोक ) इक्यावन करोड आठ लाख चौरासी हजार छह सौ इक्कीस (५१०८८४६२१) होते हैं | यह सिद्धान्त श्वेताम्बरीय सिद्धान्त ग्रंथों को भी स्वीकार है । तदनुसार यदि देखा जावे तो कोई भी श्वेताम्बरीय ग्रंथ इतना विशाल उपलब्ध नहीं हैं, न किसी श्वेताम्बरीय विद्वानने ही कोई ऐसा विशाल ग्रंथ बनाया है जिसकी कि लोक संख्या इक्यावन करोड तो अलग रही, पांच करोड या पांच लाख भी हो | ये आचारांग, स्थानांग आदि शास्त्र ५१ हजार लोकोंके बराबर भी नहीं हैं । फिर भला ये असली आचारांग स्थानांग आदि कैसे हो सकते हैं ?
श्वेताम्बरीय सज्जन शायद यह भूल गये हैं कि उपर्युक्त ५१ करोड श्लोक प्रमाणवाले आचारांग में मध्यमपद अठारह हजार हैं। स्थानांगर्मे वियालीस हजार मध्यमपद होते हैं और समवायाङ्गमें एक लाख चौसठ हजार पद होते हैं । तथा उपासकाध्ययनांग में ग्यारह लाख सत्तर पद होते हैं। क्या कोई भी श्वेताम्बरीय भाई अपने उपलब्ध आचारांग, स्थानांग, समवायांग, उपासकाध्ययनांग आदि ग्रंथोंका प्रमाण इतना बतला सकता है ? यदि नहीं तो इनको गणधरप्रणीत द्रव्य श्रुतज्ञान
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