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के मूल अंगरूप असली शास्त्र मानना तथा कहना कितनी मोटी हास्य
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महेन्द्र
नाम से ही ' महेन्द्र '
जनक भूल हैं। क्या कोई मनुष्य ( चतुर्थ स्वर्ग का इन्द्र ) हो सकता है ?
तीसरे इन ग्रंथोंकी भाषाको अर्द्धमागधी भाषा कहना भी अयुक्त क्योंकि भगवानके शरीरसे प्रगट होनेवाली निरक्षरी [ जिसको लिख नसके ) दिव्य ध्वनिको मगध देव समवसरणमें उपस्थित समस्त जीवोंकी भाषा में परिवर्तन कर देते हैं उसको अर्द्धमागधी भाषा कहते हैं । इस कारण सभी तीर्थंकरोंकी भाषा का नाम अर्द्धमागधी भाषा होता है । इन आचारांग सूत्र आदि ग्रंथोंकी भाषा पुरानी अंशुद्ध प्राकृत है । अतएव इसको मनुष्यके सिवाय अन्य कोई भी जीव नहीं समझ सकता है | भगवानकी अर्द्धमागधी भाषाको तो भिन्न २ अनेक प्रकारकी भाषाओं को बोलनेवाले सभी मनुष्य, सभी पशु पक्षी समझते हैं । इन ग्रंथोंकी भाषा को तो विना पढे अभ्यास किये श्वेताम्बरी लोग भी नहीं समझ सकते । फिर इन ग्रंथोंकी भाषा वास्तविक अर्द्धमागधी भाषा कैसे हो सकती है ? उसका नाम यदि अर्द्धमागधी के स्थानपर दिव्यध्वनि भी रख दिया जावे तो भी कुछ हानि नहीं ।
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यह तो हुआ हमारा युक्तिपूर्ण विचार; अब श्वेताम्बरीय ग्रंथोंका उल्लेख भी देखिये । हमारी धारणाके अनुसार अनेक विचारशील श्वेताम्वरीय विद्वानोंकी भी यह सुनिश्चित भटल धारणा है कि आचारांग आदि ग्रंथ श्री महावीर भगवानके निर्वाण हो जाने पर लगभग ६०० छहसौ वर्ष पीछे बनाये गये हैं । अतः न तो वे गणधरप्रणीत हैं और नवे वास्तविक आचारांग आदि ही हैं । तथा उनकी भाषा भी प्राकृत भाषा है । इन विद्वानों में से एक तो स्वर्गीय मुनि आत्माराम जी हैं उन्होंने अपने तत्वनिर्णयप्रासाद ग्रंथके ७ वें पृष्ठपर लिखा है कि
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" जो सुत्रार्थ श्री स्कंदिलाचार्यने संधान करके कंठाग्र प्रचलित करा था सो ही श्रीदेवर्द्धिगण श्रमा श्रमणजीने एक कोटी पुस्तकों में
मारूढ करा ।
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