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अनुसार ग्रंथ रचे गये हों, जिनमें पूर्वापर विरोध न हो, जो युक्तियोंसे खंडित न हो सकें, सत्य हितकर बातोंका उपदेश जिनमें भरा हुआ हो । आगमका यह लक्षण श्वेतांबरीय ग्रंथ भी स्वीकार करते हैं ।
ere म इस बातको विचार कोटिमें उपस्थित करते हैं कि आगमके उपर्युक्त लक्षण र श्वेतांबरीय ग्रंथ तुलते हैं या नहीं ? इस विचारको चलाने के पहले इतना लिख देना और आवश्यक समझते हैं। कि अधिकतर श्वेतांबरी सज्जनोंकी यह धारणा है जिसको कि अपने भोलेपनसे गर्व के साथ वे कह भी देते हैं कि 66 इस समय जो आचारांग, समवायांग, स्थानांग आदि आदि श्वेताम्बरीय सूत्र ग्रंथ उपलब्ध हैं ये वे ही ग्रंथ हैं जो कि भगवान् महावीर स्वामीकी दिव्यध्वनिके अनुसार श्री गौतम गणपरने द्वादशांगरूप रचे थे । भगवानकी अर्द्धमागधी भाषा ही इन ग्रंथों की भाषा है । " इत्यादि ।
श्वेताम्बरी भाइयोंकी ऐसी समझ गलत हैं क्योंकि एक तो श्री गौतम गणधरने शास्त्र न तो अपने हाथसे लिखे थे और न किसीसे लिखवाये ही थे । उस समय जनसाधु द्वादशांगको कण्ठस्थ स्मरण रखते थे । बुद्धि प्रबल होनेके कारण पढने पढानेके लिये ग्रंथ लिखने लिखानेका आश्रय नहीं लिया जाता था । गुरूजी मौखिक पढाते थे और शिष्य अपने क्षयोपशम [ बुद्धि ] के अनुसार उसको मौखिक याद कर लेते थे । जब महावीर स्वामीके मुक्तिसमयको लगभग पौने पांचसौ वर्ष समाप्त हो गये उस समय मनुष्योंके शारीरिक बल के साथ साथ मानसिक बल भी इतना निर्बल हो गया कि मौखिक पढकर अभ्यास कर लेना कठिन हो गया । पहले जो साधु द्वादशाङ्गको धारण कर लेते थे, उस समय पूर्ण अङ्गकी बात तो अलग रही किन्तु पूर्ण पदको धारण कर लेना भी मनुष्यों को असंभव सरीखा हो गया । इस कारण उस समय अङ्गज्ञान किसी भी साधुको स्मरण नहीं रहा । यह देखकर आचार्योंने कलिकालकी विकराल प्रगतिको देखकर भगवान महावीर स्वामी के प्रदान किए हुए, बुद्धि अनुसार थोडेसे बचे हुए
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