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मदिरा, मधुके लेनेके निषेधसे नये घीके समान नयी मदिरा, नये मधुके लेनेका विधान सिद्ध होता है।
सूत्रमें घी के साथ साथ मधु और मद्यका उल्लेख है इस कारण घीके समान ही मधु, मदिराका विधान और निषेध होगा । तदनुसार पुराने घी, मधु, मद्य के निषेध से नये धी, मधु, म द्यका विधान सिद्ध हो जाता है । क्योंकि घी भक्ष्य है । पुराना हो जाने से उसमें जीव जंतु उत्पन्न हो जानेसे वह न लेने योग्य हो जाता है। ऐसा ही उन दोनों के लिये ग्रंथकारके लिखे अनुसार समझना चाहिये ।।
इस प्रकार साधु-आचारके प्ररूपण करनेवाले श्वेतांबरीय ग्रंथों में दये छुपे शब्दों में इस प्रकार अभक्ष्य भक्षणका विधान देखकर हृदयमें बहुत दुख होता है। यह जानकर आश्चर्य और भी अधिक बढ जाता है कि ग्रंथों के आधुनिक गुजराती टीकाकार महाशयोंने मी ऐसे सूत्रों पर, अभक्ष्यभक्षण विधानोंपर कुछ ध्यान नहीं दिया है। __कहां तो साधु आत्मारामजी अपने जैनतत्वादर्श ग्रंथमें मदि. रापानमें ५१ दोष लिख कर उसका निषेध करते हैं और कहां ये प्राचीन ग्रंथ इस प्रकार खोटा विधान करते हैं। इन ग्रंथों में इस प्रकार टेटे सीधे अभक्ष्य भक्षणका विधान रहनेपर अन्य मनुष्योंको इनके त्याग करनेका उपदेश कैसे दिया जा सकता है ?
इस विषयपर भी अधिक कुछ न लिखकर अपने श्वेताम्बरी भाइयोंको धैर्यपूर्वक विचार करनेकेलिये इस प्रकरणको हम यहीं समाप्त करते हैं।
आगम समीक्षा. श्वेताम्बरीय आगम मान्य क्यों नहीं ? धार्मिक मार्गके उद्घाटन करने वाले महात्माके बतलाये गये धार्मिक नियम जिन ग्रंथों में पाये जाते हैं वे ग्रंथ आगम कहे जाते हैं। जैन आगम वे ही कहे जाते हैं जो सर्वज्ञता, वीतरागता, हितो. पदेशकता रूप तीन गुणोंसे विभूषित श्री अर्हत भगवान्के उपदेशके
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