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" से भिक्खु वा जाव समाणे सेज्जे पुण जाणेज्जा, आमडागं वा, महुं वा, मज्जं वा, सपि वा, खोलं वा । पुराणं एत्थ पाणा अणुप्पमूता एत्थ पाणा संवुढा, एत्थ पाणा जाया, एत्थ पाणा अवुकता एत्थ पाणा अपरिणता, एत्थ पाणा अविद्वत्था णो पडिगा हेज्जा ।। ६०७ ।। " इसकी गजराती टीका इसी पृष्ठपर यों लिखी है
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मुनि गोचरीए जतां अर्धी रंधापल शाकभाजी न लेवी तथा सढेलं खोल न लेवु तथा जूनुं मध, जूनी मदिरा, जूनुं घृत, जुनी मदिरानी नीचे वेशतो कचरो ए पण न लेवां, एटले के जे चीज जूनी थतां तेमां जीव जंतु उपजेला अने हजु हयातीमां वर्तनारा जणाय ते चीज न लेवी । "
यानी --मुनि गोवरी को जाते हुए आधी पकी शाक भाजी न ले; और पुराना मधु यानी शहद तथा पुरानी मदिरा यानी शराब, पुराना घी, पुरानी शरावके नीचे बैठा हुआ मसाला ये पदार्थ भी न लेवे क्योंकि ये पदार्थ जब पुराने हो जाते तब उनमें छोटे छोटे जीव जंतु उत्पन्न हो जाते हैं । और जो वस्तु इसी समय जीव जंतुवाली मालुम हो जावे तो उसको भी न लेवे ।
सारांश यह है कि पूर्ण पकी हुई शाक भाजी, विना सडा खोल तथा नवा मधु, नयी शराब, नया घी ये पदार्थ सूत्रकारके लिखे अनुसार साधु लेलेवे; क्योंकि उसमें जीवजन्तु नहीं होते हैं।
मतलब
किसी पदार्थ के एक अंशका निषेध करना उस के दूसरे संभवित अंशका विधान ठहराता हैं । यह अर्थापत्ति न्याय है । जैसे " साधु पुराना घी नहीं खावे " इस वाक्यका अर्थापत्ति से यही निकलता है कि " माधु ताजा घी खाते हैं ।" इसी प्रकार " साधु पुरानी मदिरा और पुराना मधु खाने के लिये न लेवे " इस वाक्यका भी अर्थापत्ति से यह ही अर्थ निकलता है कि " साधु नयी मदिरा और नया मधु खानेके लिये ले लेवे । " इसलिये आचारांग इम ६०७ वें सूत्रसे पुराने धीके समान पुरानी
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