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भी नहीं किया है। इसके सिवाय आचारांग सूत्र के इसी १७५ वें पृष्ठ के सबसे नीचे मद्य मांस शब्दकी टिप्पणी में यह लिखा है कि
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" वखते कोई अतिप्रमादि गृद्ध होवाथी मद्यमांस पण खावा चाहे माटे ते लीषा छे एम टीकाकार लखे छे "
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यानी - किसी समय कोई साधु अति प्रमादी और लोलुपी होकर मद्य ( शराब ) मांस भी खाना चाहे उसके लिये यह उल्लेख है ऐसा संस्कृत टीकाकार शीलाचार्यने लिखा है ।
सारांश यह है कि किसी मुनिका मन कभी बहुत शिथिल हो जावे और वह मद्य मांसको खाए विना न रहना चाहे उस लोलुपी, प्रमादी मुनिके लिये सूत्रकारने ऐसा लिखा है । अर्थात् - अति प्रमादी और लोलुपी मुनि मद्य मांस मुनि अवस्थामें रहता हुआ भी खा सकता है । यह मूल सूत्रकार और संस्कृत टीकाकारको मान्य है क्योंकि उन्होंने यहां ऐसा कोई स्पष्ट निषेध नहीं किया कि वह मद्य, मांस भक्षण कर मुनि न रह सकेगा । परंतु अहिंसाप्रधान जैनधर्मके गुरु मद्य मांस खा जावें । कितने अंधेर, अन्यायकी बात है । 1
इसी आचारांग सूत्रके इसी १० वें अध्यायके ९ वें उद्देश के ६१९ वें सूत्रमें २०१ पृष्ठपर यह लिखा है
" से भिक्खुवा जाव समाणे सेज्ज पुत्रं जाणेज्जा मंसं वा मच्छ वा भज्जिज्जमाणं पहए तेल्लपूययं वा आएसाए उवक्खडिज्जमाणं पेहाएणो खद्ध खर्द्धणो उवसंकमित्त ओमासेज्जा । णन्नत्थ गिलाणणीसाए । ६१८ " इसकी गुजराती टीका यह है
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मुनिए मांस के मत्स्य भुंजाता जोइ अथवा परोणाना माटे पूरीओ तेलमां तलाती जोइ तेना सारु गृहस्थ पासे उतावला दौडी ते चीजो मांगवी नहीं | अगर मांदगी भोगवनार मुनिना सारु खपती होय तो जुदी बात छे ।
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अर्थात् - मुनि किसी मनुष्यको मांस या मछली खाता हुआ देखकर या ( आगंतुक ) मेहमानके लिये तेलमें तलती हुई पूडियां देख कर उनको लेनेके लिये जल्दी जल्दी दौडकर उन चीजों
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