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रहेता होय; जेवाके गृहस्थो, गृहस्थ बानुओ, गृहस्थ पुत्रो, गृहस्थ पुत्रीओ, गृहस्थ पुत्रवधुओ, दाइओ, दास, दासीओ, अने चाकरोके चाकरडीओ, तेवा गाममां जतां जो ते मुनि एवो विचार करे के हुं एकबार वधाथी पहेला मारा सगाओमां भिक्षार्थे जइश, अने त्यां मने अन्न, पान, दूध, दर्हि, माखण, घी, गोल, तेल, मधु, मद्य, मांस तिलपापडी, गोलवालुंगणी, बुंदी के श्रीखंड मलशे ते हुं सर्वथी पहेलां खाइ पात्रो साफ करी पछी बीजा मुनिओ साथे गृहस्थना घरे भिक्षा लेवा जइश, तो ते मुनि दोषपात्र थाय छे माटे मुनिए एम नहि करवुं, किंतु बीजा मुनिओ साथे वखतसर जुदा जुदा कुलोमा भिक्षा निमित्ते जइ करी भागमा मलेको निर्दूषण आहार लइ वापरखो । "
अर्थात - किसी गांव में किसी मुनिका अपने [ पितापक्षका ] तथा अपनी ससुराल के ( अपनी पत्नी के पक्षवाले ) गृहस्थ पुरुष, गृहस्थ स्त्री, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू, धाय, नौकर, नौकरानी, सेवक, सेविका रहते हों उस गांवमें जाते हुए वह मुनि ऐसा विचार करे कि मैं एक बार और सब साधुओं से पहले अपने सगे संबंधिओं में ( रिश्तेदारों में ) भिक्षा के लिये जाऊंगा, और मुझे वहां अन्न, पान, दूध, दही, मक्खन, घी, गुड, तेल, मधु . शहद ) मद्य, (शराब) मांस, तिलपापडी, गुडका पानी ( गन्ने का रस, शर्वत या सीरा) बूंदी या श्रीखंड मिलेगा उसे मैं सबसे पहले खाकर अपने पात्र साफ करके पीछे फिर दूसरे मुनियोंके साथ गृहस्थ के घर भिक्षा लेने जाऊंगा, ( यदि वह मुनि ऐसा करे ) तो वह मुनि दोषी होता है । ( क्योंकि एक तो अन्य मुनियोंसे छिपाकर भिक्षा के लिये पहले गया और दूसरे दो वार भिक्षा भोजन किया ) इस - लिये मुनियोंको ऐसा नहीं करना चाहिये । किन्तु और मुनियोंके साथ समयपर अलग अलग कुलों में भिक्षा के लिये जाकर मिला हुआ निर्दृषण आहार लेकर खाना चाहिये ।
' निर्दूषण' विशेषण मूल सूत्रमें नहीं है यह विशेषण गुजराती टीकाकारने अपने पाससे रक्खा है । तथा टीकाकारने सूत्रमें कहीं मधुमांस, मदिरा, मक्खन आदि अभक्ष्य, निंद्य पदार्थों के खानेका निषेध
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