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इस विषयमें विशेष कुछ न लिखकर हम अपने श्वेतांबरी भाइयोंके ऊपर छोडते हैं । वे ही विचार करें कि क्या बरसातसे बचने के लिये परिग्रहत्यागी साधुको छाता रखना भी योग्य है ? यदि ऐसा हो तो जिस देशमें बर्फ बहुत पडती हो वहाँपर मुनियोंको शिरपर पहननेके लिये टोप तथा पैरोंमें पहनने के लिये ऊनके मौजे ( जुर्रा-स्टाकिंग ) भी रखने चाहिये ।
क्या साधु चर्मका उपयोग भी करे ? अब यहां ऐसे विषयपर उतरते हैं जिसके कारण साधुका अहिंसा धर्म कलंकित होता है । उस विषयका नाम है चर्म यानी चमडेका उपयोग।
यद्यपि व्रत धारण करने वाले प्रत्येक मनुष्य को किसी भी जीवका चमडा अपने उपयोगमें नहीं लाना चाहिये क्योंकि प्रथम तो चमडा जीवहिंसासे प्राप्त होता है । दूसरे-अपवित्र वस्तु है और तीसरे सम्मूर्च्छन जीव उत्पत्तिका योनिस्थान है । परन्तु अहिंसा महावत धारी साधु जो कि एकेन्द्रिय स्थावर जीवोंकी हिंसासे भी अलग रहते हैं अपने पदके अनुसार चमडे का उपयोग किसी प्रकार नहीं कर सकते । क्योंकि ऐसा करनेसे उनके असंयम तथा अहिंसा महाव्रतका नाश कराते है। ___ परन्तु दुःखके साथ लिखना पड़ता है कि हमारे श्वेताम्बरीय ग्रंथ अपने श्वेताम्बरीय महाव्रतधारी साधुओंके लिये चमडे का उपयोग भी बतलाते हैं। प्रवचनसारोद्धारके १६५ वें पृष्ठ पर अजीवसंयमका वर्णन हुए यों लिखा है
" इहां पिंडविशुद्धिनी महोटी वृत्तिमा · संयमे गति । एटले संयमनु वखाण करते अजीवसंयम पुस्तक अप्रत्युत्प्रेक्ष्य, दुःप्रत्युत्प्रेक्ष्य, दृष्य, तृण, चर्म पंच, मझ्य हिरण्यादिकनो अग्रहणरूप।" ।
" इहां शिष्य पूछे छे एना अग्रहणे संयम ? किंवा ग्रहणे संयम थाय?"
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