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क्या साधु ऊनके वस्त्र धारण करे ? श्वेतांबरीय साधु परिग्रह त्याग महाव्रत धारण करके भी गृहस्थों सरीखे ही नहीं किंतु ग्यारहवीं प्रतिमाधारी गृहस्थसे भी बढकर वन अपने पास रखकर परिग्रह स्वीकार करते हैं वह महाव्रतीके लिए कितना अनुचित है ? व्रतभंग तथा असंयमका कारण है ? यह बात तो पीछे बतलाई जा चुकी है । अब हम इस बातपर थोडा प्रकाश डालते हैं कि श्वेतांबरीय मुनि जो वस्त्र अपने पास रखते हैं वे वस्त्र भी निर्दोष नहीं होते।
देखिये-श्वेतांबर साधु अपने पास कुछ तो सूती वस्त्र रखते हैं और कुछ ऊनी वस्त्र रखते हैं जैसे ओढनेका कंबल । बहुतोंके पास बिछाने का कंधारा भी ऊनी होता है, ओघा (पीछी ) तो सभीके पास ऊनका बना हुआ होता है।
तदनुसार-सूती कपडोंमें शरीरका पसीना, मैल आदि लग जानेसे जूं इत्यादि सम्मुर्छन जीन उत्पन्न हो जाते हैं यह तो एक बात रही किन्तु दूसरी बात एक यह भी है कि ऊनी कपडे स्वभावसे ही जीव उत्पन्न होनेके योनिस्थान होते हैं। ऊनी कपडोंसे पसीना आदि न भी लगे . तथापि उनमें कीडे उत्पन्न हो जाते हैं और उस वस्त्रको काटते रहते हैं । ऊनी कपड़ों की दशा सब कोई समझता है कि यों ही रक्खे रक्खे उनमें कीडे उत्पन्न होकर उन कपडोंको खा जाते हैं।
ऐसे जीव उत्पत्तिके योनिभूत कपडोंको ओढने विछाने से साधुओंके द्वारा उन कीडोंका घात अवश्य होगा जिससे उनका महिसा महावत निर्दोष नहीं पल सकता न संयम पालन ही हो सकता है। इस कारण श्वेताम्बर साधुओंका ऊनी वस्त्र पहनना ओढना विछाना साधुव्रत का घातक है।
मोरपंखकी पीछी ऊनी पीछीसे ( ओघासे ) जिस प्रकार अधिक कोमल होती है उसी प्रकार उसमें यह भी एक अच्छी विशेषता है कि उसमें किसी प्रकारके जीव भी उत्पन्न नहीं होते । इस कारण ऊनी कपडे साधुओं को कदापि ग्रहण नहीं करने चाहिये और न ऊनकी पीछी (ओघा) ही रखना चाहिये ।ओषा मोरके पंखोंका ही होना चाहिये ।
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