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प्रेम तथा भक्ति पैदा होती है। ऐसा क्यों ? ऐमा केवल इसलिये कि उन माता, बहिन और पुत्रीके लिए उस पुरुषका मन निर्विकार है कामवासनासे रहित है।
उसी पुरुषका आलिंगन जब उसकी स्त्री करती है तब उन दोनों के हृदयमें कामवासना पैदा हो जाती है क्योंकि उस समय दोनों के मनमें कामविकार मौजूद है।
इसी प्रकार जिस पुरुषके मनमें कामविकार मौजूद है उसको नंगा देखकर दूसरे स्त्री पुरुषों का मन अवश्य कामविकारमें फसजाता है क्योंकि उसके काम विकारकी साक्षी उकी लिनेद्रिय देती है। परन्तु जिस महात्माके मन में काम विकार का नाम निशान भी नहीं है; अखंड ब्रह्मचर्य कूट कूट कर भरा हुया है उसके नंगे शरीर में कामविकार भी नहीं दीख पडता है । अत एव उसके दर्शन करनेवाले स्त्री पुरुषों के हृदयमें भी कामवासना नहीं आ सकती।
जो साधु मनमें कामवासना रखकर ऊपर से ब्रह्मचर्यका ढोंग लोगोंको दिखलावे तो कपडोंसे ढके हुए उसके कामविकारको भी लोग समझ नहीं सकते । ऐसा साधु अनेक वार लोगोंको ठग सकता है। किन्तु जो साधु अखंड ब्रह्मचर्यम अपने आत्माको रंग चुका है वह यदि नंगे बेपमें हो तो लोगोंको उसके ब्रह्मचर्य व्रतकी परीक्षा हो सकती है। क्योंकि मनमें कामवासना जा जानेपर लिा इन्द्रय पर विकार अवश्य आ जाता है। ___यदि किसी वेताम्बर या स्थानकवासी भाईको इस विषयमें कुछ संदेह हो तो " हात कंगनको अ.रसीसे क्या काम ?" इस कहावतके अनुपार इस समय भी दक्षिण पार ट्रथ कर्णाटक प्रान्तमें विहार करनेवाले मुनिसव के श्री १०८ आशय शा ने सागरजी मुनिवर्य वीरसाग जो आदिका तथा ग्वालियर राज्य व संयुक्त प्रान्त के बनारप्त, लखनऊ और विहार प्रान्तके गया, आग, गिरीडी, हजार बाग कोडरमा आदि नगरों में विहार करने वाले मुनिराज श्री शांतिसागरजी ( छ णी ), सूर्यस, गरजी, मुनीन्द्रसागरजी आदि दिगम्बर मुनियों का दर्शन कर
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