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सारांश-मुनि यदि परीषह सह सकता हो तो वह बस छोडकर नमही रहे । नग्न रहनेसे मुनिको बहुत चिन्ता नहीं रहती है और तप भी प्राप्त होता है।
इस प्रकार यह वाक्य भी मुनिके दिगम्बर वेषकी पुष्टि और प्रशं. सा करता है । इसी आचारांग सूत्रके ८ वें अध्यायके पहले उद्देशमें पतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वाभीके तपस्या करते समयका वर्णन करते हुए १३६ पृष्ठपर यों लिखा है " संवच्छरं साहियं मास, जंणरिकासि बत्यगं भगवं, अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणगारे । १६५)
गु. टी. भगवाने लगभग तेर महिना लगीते (इन्द्रे दीघलें। वरून स्कंधपर धर्यु हतुं पछी ते वस्त्र छांडीने भगवान वस्त्र रहित अणगार थया ।
यानी- महावीर स्वामीने लगभग १३. मास तक ही इन्द्रका दिया हुआ देवदृष्य कपडा कंधेपर रक्खा था किन्तु फिर उस वस्त्रको भी छोड कर वे अंत तक नम रह कर तपस्या करते रहे ।
इस वाक्य से भी मुनियोंके दिगम्बर वेषकी अच्छी पुष्टि होती है क्योंकि जिन महावीर तीर्थकरने नम वेषौ तपश्चरण करके मोक्ष पाई है जिस मार्गपर महावीर स्वामी चले उस मार्गका अनुयायी महाव्रत धारी मुनि उत्कृष्ट क्योंकर न होवे ?
इस विषयपर श्वेताम्बर संप्रदायका प्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रंथ प्रवचनसारोदार १३४ वें पृष्ठपर अपने ५०० वी गाथामें ऐसा लिखता हैजिनकप्पिआवि दुविहा पाणिपाया पडिगाहधराय. पाठरण मपाउरणा एकेकातेभवे दुविहा । ५००।
यानी-जिनकल्पी मुनि भी दो प्रकारके होते हैं । पाणिपात्र, पतगृहधर। इन दोनों में से प्रत्येक दो दो प्रकार का है। एक अप्रावरण यानी कपडा रहित और दूसरा सप्रावरण यानी कपडा सहित ।
इस गाथासे भी यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि सबसे ऊंचे मुनि बस और पात्ररहित जिनकल्पी मुनि होते हैं जिनको दूसरे शब्दों में दिगम्बर साधु ही कह सकते हैं । श्वेताम्बर ग्रंथ उत्तराध्ययन के २३ वें अध्याय की १३ वीं गाथाकी संस्कृत टीका में यह लिखा है
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