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वी. सं. 224 1 (वि. सं. 1771 ई. स. 1714 ) में जोधपुर नरेश श्री अजितसिंह को प्रतिबोधित किया था । वी. सं. 2192 (वि. सं. 1722 ई. स. 1665 ) के आसपास उपाध्याय यशोविजयजी और अध्यात्म-ज्ञानी आनन्द घनजी हुए, जिनके पद, अध्यात्म-ज्ञान और चिन्तन के लिये प्रसिद्ध हैं | योगीराज ग्रानन्द घनजी अनेक शास्त्रों के पण्डित तो थे ही, साथ साथ वे गायक और वादक भी थे। उनकी कृति 'आनन्द - घन- चौबीसी' प्रख्यात है । उपा. यशोविजयजी भी सर्वोत्कृष्ट विद्वान् हुए हैं जिनके ग्रंथ 'स्याद्वाद - रहस्य' अध्यात्मसार अध्यात्म-निषद विख्यात हैं । उपा. यशोविजयजी सूक्ष्म दृष्टि विचारक, प्रतिभाशाली, दर्शन शास्त्री और महान् साहित्यकार थे । वे बनारस में विश्व विदग्धा और 'न्याय- विशारद' की पदवियों से विभूषित किये गये थे । हेमचन्द्राचार्य के बाद जैन न्याय के उत्तम विद्वान् हुए हैं उनका स्वर्गवास वी. सं. 2213 ( वि. सं. 1743 - ई. स. 1686 ) में हुआ। दोनों विभूतियों का मिलन कहीं ग्राबू प्रदेश में हुआ था । इनके अतिरिक्त श्रमरण विनयविजयजी, मेघविजयजी, भावविजयजी आदि ने साहित्य की अच्छी सेवा की है ।
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वीर संवत् की 24 वीं और 25 वीं शताब्दी ( विक्रम की 20 वीं और 21 वीं सदी) युगवंदनीय शास्त्र विशारद् विजयधर्म सूरिजी हुए जिन्होंने उपाश्रय से बाहर वाराणसी की गलियों में धर्मोपदेश दिया और कई ग्रन्थ मालाएँ एवं विद्या - शालाएँ स्थापित की। वे न केवल भारतीय राजानों के उपदेशक थे किन्तु विदेशी विद्वानों को भी जैन धर्म का प्रतिबोध करने वाले थे । पाश्चात्य देशों में जैन धर्म साहित्य का प्रबल प्रचार किया। कई एक का मांसाहार भी छुड़ाया। उन्होंने जैन धर्म में प्रचलित कुरीतियों को भी अपने उपदेश से मिटाया । दूसरे विख्यात प्राचार्य श्री विजयनेमि सूरिजी हुए जिन्होंने लींवडी गोंडल, जुनागढ़ आदि नरेशों को प्रतिबोधित कर उनके राज्य में हिसापलाई थी । आगमोद्धारक श्री सागरानन्द सूरिजी सेलाना ( मध्य प्रदेश) के नरेश के प्रतिबोधक थे । आधुनिक युग में जैनागमों को शुद्ध स्वरूप में प्रकाशित करने वाले प्रथम आचार्य थे । उनके उपदेश से पालीताणा में श्रागम मन्दिर स्थापित हुआ । श्रा. श्री विजय कमल सूरिजी श्री वल्लभ -
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