________________
[38]
सिद्धान्तों की स्वीकृति उससे उतनी प्राप्त कर ली कि वह जैन धर्म का अनुयायी माना जाने लगा।"
मध्य युग के जैनाचार्यों में प्राचार्य हीर विजय सूरि, एक चमकते सितारे थे । उनकी असाधारण प्रतिभा, प्रताप, अपूर्व विद्वत्ता की यशः पताका जैन धर्म के उपासकों में ही नहीं किन्तु समस्त भारत में फहराती थी। भगवान महावीर के अहिंसा का डिडिमनाद सारे भारतवर्ष में सूरिजी ने सुनाया था। ये सूरिजी अलौकिक विभूति थे। उनके तेज पुण्य और प्रभाव के सामने बड़े-बड़े सम्राट, सूल्तान, राजा, महाराजा, धनाढय और दिग्गज पंडित सिर झुकाते थे। जैन श्रमणों के त्यागमय जीवन का खरा ( वास्तविक ) परिचय सूरिजी ने कराया था। वे केवल गुजरात के ही सपूत नहीं थे किन्तु भारत की महान विभूति और जैन श्रमण संस्कृति के आदर्श प्रतिमा समान थे। उनके 2000 शिष्य थे जिन्होंने राज अनुकूलता का लाभ लेकर मालवा, मेवाड़, राजस्थान, दक्षिण पूर्व पंजाब, लाहौर, काश्मीर आदि स्थानों में विचरण कर जैन धर्म का खूब प्रभाव जमाया और जहाँगीर, शाहजहां सम्राटों एवं उनके राज परिवार को भी उपदेश दिया। प्राचार्य श्री के अन्य विद्वान शिष्य श्री सिद्धिचन्द्रजी को खुश फहम का माना हुआ विरुद बादशाह अकबर ने प्रदान किया था। इस प्रकार मध्य युग में, जैन धर्म का प्रचार और प्रसार भारत में चरम सीमा तक पहुंच चुका था ।
1.
“He used little for flesh food and gave up the use of it almost entirely in the later years of his life when he came under Jain influence. ............ But the Jain Holy man, uo-doubtedly. gave, Akbar pralouged instruction for years, which largely influenced bis actions and they secured bis assent to their doctrines so far that he was reputed to have been convert to Jainism.'
-Vincent A. Smith's Jain Teachers of Akbar p. 17.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com