________________
[ i ]
परम्परा के बहुआयामी इतिहास का गहराई से मूल्यांकन करते हैं । यद्यपि प्रत्येक विधा और विषय पर भी स्वतन्त्र रूप से अनुसंधान हुआ है तथा कई अन्य, प्रामाणिक ग्रन्थ भी प्रकाश में आये हैं ।
श्रमण परम्परा में देश की प्रायः सभी भाषाओं में समय-समय पर साहित्य सृजन हुआ है । भगवान् महावीर ने तत्कालीन लोक भाषा प्राकृत (अर्धमागधी) में अपने उपदेश दिये थे । जैनाचार्यों ने तब से लेकर आज तक हजारों की संख्या में प्राकृत भाषा में ग्रन्थों की रचना की है । परिणाम स्वरूप जैन धर्म के परिज्ञान के लिये प्राकृत भाषा अपरिहार्य हो गयी है । लगभग छठी शताब्दी से महाकवि स्वयम्भु ने अपभ्रंश भाषा में ग्रन्थ रचना प्रारम्भ किया और लगभग 16वीं शताब्दी तक जैनाचार्यों ने अपभ्रंश भाषा में हजारों ग्रन्थ लिख दिये । संस्कृत भाषा देश की टकसाली भाषा रही है । अतः न्यायदर्शन, काव्य आदि के अनेक ग्रन्थ जैन मनीषियों ने संस्कृत में भी लिखे हैं । इन तीनों भाषाओं के लगभग दो तीन लाख हस्तलिखित ग्रन्थ जैन ग्रन्थ भण्डारों में आज सुरक्षित हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि श्रमण परम्परा ने भाषा और साहित्य की कितनी लगन से सेवा की है। यही नहीं भारत की आधुनिक भाषाओं- गुजराती, राजस्थानी, मराठी आदि में भी विशाल जैन साहित्य लिखा गया है । दक्षिण भारत की अधिकांश भाषाओं के साहित्य का श्रीगणेश ही जैनाचार्यों की रचनाओं से हुआ है। तमिल भाषा का 'कुरुल' एवं कन्नड़ भाषा में महाकवि पंप, रन्न आदि के ग्रन्थ इस बात का प्रसारण हैं । भारतीय साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा या विषय हो जिस पर जैनाचार्यों ने अपनी लेखनी न चलाई हो । पुराण, काव्य, कथा, नाटक आदि पर हजारों ग्रन्थ जैनाचार्यों द्वारा लिखित ग्राज प्राप्त हैं । जैनाचार्यों ने अपने साहित्य में नैतिक आदर्शों एवं जीवन की उत्थान मूलक प्रवृत्तियों को विशेष बल दिया है । जैन धर्म की उदार-मूलक एवं समन्वयवादी विचारधारा के कारण जैन साहित्य में न केवल जन-जीवन के पात्रों का चित्रण हुआ है, अपितु वैदिक विचारधारा के उन सभी प्रमुख देवी-देवताओं को भी कथा का अंश बना लिया गया है, जो जन-मानस में श्रद्धा और भक्ति के मंबल थे । राम कथा और कृष्ण कथा का जैन साहित्य में इतना विस्तार हुआ है कि
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com