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प्राक्कथन
भारतीय संस्कृति के इतिहास में श्रमण संस्कृति का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है । जिसे श्राज हम जैन-धर्म के नाम से जानते हैं वह इसी श्रमण धर्म का विकसित रूप है । श्रमण, निर्ग्रन्थ, अर्हत् आदि इस धर्म के प्राचीन नाम हैं । श्रमरण का अर्थ है समभाव रखने वाला, पुरुषार्थ (श्रम) करने वाला तथा इन्द्रियों के विषयों का शमन करने वाला, ऐसे तपस्वी व साधक व्यक्ति का धर्म है- श्रमण धर्म । जिसके कोई ग्रन्थि ( परिग्रह अथवा कषाय ) न हो वह निर्ग्रन्थ है । वही प्रत ( पूज्य ) है । उसके द्वारा प्रतिपादित धर्म निर्ग्रन्थ अथवा अर्हत्-धर्म है । तीर्थंकरों की परम्परा बहुत प्राचीन है। भगवान ऋषभदेव से भगवान् महावीर तक उसका विस्तार महावीर समय से प्राज तक श्रमण परम्परा का बहुआयामी विकास हुआ है । अतः उसे किसी लघुपुस्तिका में प्रस्तुत कर पाना संभव नहीं है । फिर भी श्रीमान जोधसिंहजी मेहता ने श्रमण परम्परा की रूपरेखा में जो सामग्री दी है वह प्रेरणास्पद है और इस सुदीर्घ परम्परा के कतिपय पक्षों की ओर पाठक का ध्यान आकर्षित करती है ।
श्रमण संस्कृति के प्रथम उद्घोषक भ. ऋषभदेव का समय श्रादि मानव सभ्यता का काल था । सिन्धु सभ्यता के अवशेषों में उनका अस्तित्व एवं ऋग्वेद तथा पटवर्ती साहित्य में उनका स्मरण इस बात का प्रमाण है । ऋषभदेव ने केवल निर्ग्रन्थ धर्म का उपदेश ही नहीं दिया था, अपितु अपने समय के मानव को लिपि, भाषा, साहित्य और कला यादि के ज्ञान से भी परिचित कराया था । इतिहास साक्षी है कि श्रमण परम्परा में धर्म और दर्शन के प्रचार के साथ-साथ अनवरत रूप से भाषा, साहित्य और कला का संरक्षरण और प्रसार भी होता रहा है। इस महत्वपूर्ण थाती का ग्राकलन व मूल्याँकन भारतीय व विदेशी विद्वानों ने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थों में किया है । स्व. डॉ. हीरालाल जैन की प्रसिद्ध पुस्तक "भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान ", डॉ नेमिचन्द शास्त्री की पुस्तक "भ. महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा " ( चार भाग), डॉ घोष द्वारा संपादित "जैन कला और स्थापत्य", पं. दलसुख मालवरिया, डॉ. मोहनलाल मेहता आदि विद्वानों द्वारा संपादित "जैन साहित्य का बृहत् इतिहास ( भाग 6 ) आदि कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं जो श्रमरण
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