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पुराने धर्म-गुरु और उनकी शिष्य- परम्परा
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दार रास्ते, भूत-प्रेत और डाकिनियाँ; किन्तु वह सब मुसीबतों को भेलता हुआ निरन्तर अपने मन्त्र का पाठ मन ही मन करते-करते डाकिनियों के देश तक पहुँच कर ही दम लेता है ।
किले में घुसते समय उसके चारों और बड़े-बड़े दाँत निकालकर डाकिनियाँ आ आकर खड़ी हो जाती हैं। पेड़ों की डालों और भालों की नाकों से उसका रास्ता रोक लेती हैं। क्रिने की दीवालों से आग की लपटें निकलने लगती हैं लेकिन बताये हुए मन्त्र के बल से तिलोपा इन सबको न करता हुआ रानो के कमरे तक पहुँच ही जाता है ।
डाकिनियों की रानी उसे भुलावे में डालने का यत्न करती है किन्तु तिलोपा उसके पास पहुँचकर उसके चमचमाते हुए गहने पकड़कर खींच लेता है; फूलों की माला को नोचकर और रेशमी सुनहले राजसी वस्त्र झटककर पैरों के तले कुचल देता है फिर रानी का हाथ पकड़कर उसे सिंहासन से नीचे उतार लेता है ।"
डाकिनियों पर इस प्रकार की विजय की तिब्बती साहित्य में मौजूद हैं। पर ये केवल हैं - इनका असली मतलब गूढ़ और रहस्य से
सैकड़ों कहानियाँ कहानियाँ हो नहीं भरा हुआ रहता
। सत्य की खोज और अध्यात्मवाद की ओर इसमें इशारा
रहता है । तिलोपा ने अपने धर्म की शिक्षा एक विद्वान् काश्मीरो ब्राह्मण नरोपा को दी और नरोपा के एक शिष्य लामा मार्पा ने उसका अपने देश वासियों में प्रचार किया। लामा मार्पा के प्रिय शिष्य मिलारेपा का चेला दाग्पोल्हाजी हुआ और आज तक यह शिष्यपरम्परा बराबर काग्युद-पा साम्प्रदायिकों में इसी प्रकार चली आ रही है ।
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