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पाँचवाँ अध्याय पुराने धर्म-गुरु और उनकी शिष्य-परम्परा प्रस्तुत पुस्तक के इस अध्याय से सम्बन्ध रखनेवाली एक से एक बढ़कर रोचक कहानियाँ सैकड़ों बल्कि हजारों की तादाद में हम चाहें तो तिब्बतियों की जबानी सुन सकते हैं। दूसरी भाषाओं में अनूदित होकर दूसरे देशों में-जिनके निवासियों के रीतिरिवाज और श्राचार-विचार तिब्बतवासियों से बिल्कुल भिन्न हैं-जब ये कहानियों पढ़ी जाती हैं तो उनकी रोचकता अधिकांश रूप में नष्ट हो जाती है। वास्तव में अपने देश में, धार्मिक गुम्बाओं की अंधेरी कोठरियों में या चट्टानी गुफाओं की छतों के नीचे, इनमें और अधिक अन्धविश्वास रखनेवाले तिब्बता लामाओं के बीच में जब ये कहानियों कही-सुनी जाती हैं तो इनमें कुछ और ही बात होती है।
पहले मैं संक्षेप में तिलोपा का वृत्तान्त कहती हूँ। गोकि वह बंगाल का रहनेवाला था और अपने जीवन में एक बार भी उसने तिब्बती सीमा के इस पार पैर नहीं रक्खा था, किन्तु वह 'लाल टोपीवालों की एक प्रमुख शाखा (ग्युद्-पा) का आध्यात्मिक गुरु माना जाता है। इसी सम्प्रदाय के एक संघ में लामा यौङ्गदेन ने पहले-पहल ८ वर्ष की आयु में प्रवेश किया था। ___ "तिलोपा बैठा है और उसके सामने उसकी धर्म-पुस्तक खुली रक्खी है जिसे वह बड़े ध्यान से पढ़ रहा है। फटे पुराने वस्त्रों को पहने हुए एक बुड्ढी औरत उसके पीछे कहीं से आकर खड़ी हो
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