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प्राचीन तिब्बत प्रायश्चित्त कर रहा हूँ। आज अपने इस अमूल्य शरीर को मैं अपनी इच्छा से समाप्त करता हूँ। ___"मैं भूखे को अपना मांस, प्यासे को अपना रक्त, नंगों को शरीर ढंकने के लिए चमड़ी और जाड़े में ठिठुरते हुओं को तापने के लिए अपनी हड्डियाँ देता हूँ। दुखियों के लिए अपने सुख को और मरते हुए प्राणियों के लिए अपनी श्वास को छोड़ता हूँ। ___"अगर मैं अपने शरीर का परित्याग करने में थोड़ा भी पीछे हहूँ तो मुझ पर लानत है ! पापिनि चुडैल ! अगर तू मेरे मांस को काट-काटकर इन भखे भतों को न खिला सके तो तुझे धिक्कार है।"
इस क्रिया का नाम है 'लाल भोज' और इसके बाद ही जो दूसरी क्रिया होती है, उसका 'काला भोज'।
भूतों के निमन्त्रण का यह कल्पित दृश्य लुप्त हो जाता है और उनके अट्टहास की आवाज़ भी क्षीण हो जाती है। थोड़ी देर के बाद नालजोपी भी अपने आपे में आ जाता है। इस काल्पनिक आत्म-बलिदान से उसमें जो उत्तेजना आ गई थी, वह भी
शान्त हो जाती है। ___अब उसे कल्पना करनी पड़ती है कि वह काले कीचड़ से भरे हुए एक गढ़े से निकाली गई मनुष्य की सूखी हड्डियों का एक ढेर हो गया है। काले कोचड़ से और कुछ नहीं; दुःख, यातना, पातक
और अन्य जघन्य कर्मों-जिनसे उसका पिछले जन्म में सम्बन्ध रहा है-आदि से मतलब है। उसे भली भाँति समझना पड़ता है कि त्याग की भावना हो विडम्बना है जिसका आधार थोथा अन्धा गर्व मात्र है। वास्तव में त्याग के लिए अब उसके पास कुछ है ही नहीं; क्योंकि वह स्वयं 'कुछ नहीं है। ये बेकार की हड्डियाँ जो और कुछ नहीं अपने अस्तित्व इस "मैं" की सम्यक् रूप से
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