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तिब्बत की एक प्रख्यात गुम्बा या मित्रों की कोठरी मिल जाती है और कभी-कभी धनी लामाओं की ओर से बनी हुई कोठरियों किराये पर लेनी पड़ती हैं। अपने पेट के लिए भी उसे कुछ न कुछ काम करना पड़ता है। कोई भण्डारी बन जाता है, कोई मुहरि और कोई साईस। होनहार विद्यार्थियों, विद्वानों और बड़े-बूढ़े लामाओं को अलबत्ता कुछ उदारचित्त लामा अपने यहाँ यों ही स्थान दे देते हैं। जिसके पास विद्या होती है, उसे अपने लिए अधिक कठिनाई नहीं करनी पड़ती। विद्यार्जन करके, पौराणिक आख्यानों के चित्र बनाकर, ज्योतिष गणना या जन्मकुण्डली ही खींचकर या पूजापाठ करवाकर होशियार लोग यों ही बहुत काफी धन पैदा कर लेते हैं। जिन्हें थोड़ा बहुत वैद्यक का ज्ञान होता है उनकी तो बन पाती है। ऐसे लोगों की तो बड़ी पूछ रहती है। पर सबसे अधिक आमदनी जिस पेशे में होती है वह कोई दूसरा ही है। जो अपने पास से कुछ पैसा लगा सकते हैं वे व्यवसाय से बहुत कुछ पैदा कर लेते हैं। जिनके पास निजी पूंजी नहीं होती वे दूसरे व्यवसायियों के यहाँ मुनीमी या कोई और छोटी नौकरी कर लेते हैं।
एक बड़े विहार का इन्तजाम किसी नगर के प्रबन्ध से कम कठिन नहीं होता। इन गुम्बाओं के भीतर जो भिन रहते हैं उन्हीं की संख्या हजारों तक पहुँचती है। इनके अतिरिक्त प्रत्येक मठ के मातहत बहुत से गाँव भी होते हैं, जिनका प्रबन्ध इन्हीं गुम्बाओं की तरफ से होता है। कुछ चुने हुए अफसर अपने मुहरिरों और एक प्रकार की पुलीस की सहायता से इन गाँववालों की देखभाल करते हैं।
चुनाव के द्वारा गुम्बा का सबसे बड़ा पदाधिकारी सौग्स-छेन् शलङ्गो नियत किया जाता है। विहार-संघ के नियमों का जो उल्लंघन करते हैं उन्हें दण्ड देने का अधिकार भी इसे ही होता है
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