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प्राचीन तिब्बत प्रत्येक गुम्बा में एक बड़े कमरे के अतिरिक्त कई एक ल्हा-खङ् यानी देवस्थान होते हैं। इन सबको स्थापना किसी न किसी देवता या ऐतिहासिक अथवा पौराणिक बोधिसत्त्वों के नाम पर की जाती है।
जिन्हें श्रद्धा होती है वे इन मूर्तियों के दर्शन करने आते हैं। इन देवताओं के सम्मान-स्वरूप वे अगरबत्ती या घी के दिये जलाते हैं। कभी कभी मनौतियाँ भी करते हैं, पर सदैव नहीं।
बुद्धदेव के आगे वरदान की इच्छा नहीं प्रकट की जाती, क्योंकि भगवान् सांसारिक इच्छाओं की सीमा के बाहर चले गये हैं। हाँ, लोग शपथ ले सकते हैं और अपना विश्वास प्रकट करते हैं। जैसे "इस जीवन में या दूसरे जीवन में बहुत सा धन-धान्य दान में दूंगा और अनेक जीवों का कल्याण मुझसे होगा"; या "बुद्ध भगवान के सिद्धान्तों का तात्पर्य मेरी बुद्धि में आ रहा है। मैं निरन्तर अपना कर्त्तव्य कर्म करता जा रहा हूँ ।" आदि आदि। ___पहले के बौद्ध भिक्षों की भाँति ये लोग दरिद्रता का स्वागत नहीं करते। मेरा तो विचार यह है कि जो लामा यहाँ अपनी प्रसन्नता से ग़रीब बनकर रहना चाहे उसका कोई विशेष आदर नहीं होता। इस तरह का पागलपन सिर्फ संन्यासी ही करते हैं, जिनका अपना कोई घर-बार नहीं होता। हाँ, सिद्धार्थ गौतम
और अन्य पुराने बड़े घरानों के युवकों की कहानियाँ, जिन्होंने थोड़ी उम्र में ही संसार से नाता तोड़कर संन्यास ग्रहण कर लिया था, बड़े चाव और श्रद्धा के साथ कही-सुनी जाती हैं। परन्तु
आजकल के समय में ऐसी घटनाएँ असम्भव और किसी अन्य जगत् की मानी जाती हैं।
विहार-संघ में प्रवेश करते ही किसी को रहने के लिए मुफ्त कोठरी नहीं दे दी जाती। प्रत्येक भिक्ष को अपने लिए स्वयं प्रबन्ध करना पड़ता है। कभी-कभी उसे अपने ही सम्बन्धियों
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