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तिब्बत की एक प्रख्यात गुम्बा
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इन उच्च आदर्शों को लक्ष्य में रखकर ये गगनचुम्बी इमारतें बर्फ से घिरे हुए विशाल नगरों में उठाई गई थीं। पर आजकल तो सिद्ध और करामाती लामा इनके बाहर ही देखने में आते हैं । विहारों का वातावरण कुछ पहले जैसा न रह जाने के कारण वे और निर्जन, आदमियों को पहुँच से दूर, पहाड़ की कन्दराओं को अपने लिए अधिक उपयुक्त समझते हैं। फिर भी इन संन्यासियों का आध्यात्मिक जीवन प्रायः इन्हीं विहारों से आरम्भ होता है।
जिन लड़कों के माता-पिता उन्हें मठ जीवन के लिए चुन लेते हैं वे ८ या ९ साल के हो जाने पर विहारसंघ में प्रवेश करते हैं। अपने कुटुम्ब के किसी बड़े भिक्ष के हाथ में या किसी सम्बन्धी के न मिलने पर जान-पहचान के एक भले आदमी की निगरानी में वे सौंप दिये जाते हैं । प्राय: यह पहला अध्यापक उनका उम्र भर का गुरु होता है ।
प्रतिदिन सबेरे लड़के आँख मींचते हुए उठते हैं और अपने से बड़े की देखादेखी दैनिक जीवन में लग जाते हैं। जिस ढंग से यहाँ दिन का आरम्भ होता है उसी से आभास मिल जाता है कि इन गुम्बा में रहनेवालों का जीवन किस प्रकार का होता होगा । जिन लड़कों के माँ-बाप पैसेवाले होते हैं उनके घर से तरहतरह की वस्तुएँ आती रहती हैं। प्रायः मक्खन, सूखे मेवे, चीनी, राब और रोटियाँ आदि आती हैं। जिन भाग्यवानों को ये चीज़ * सरलता से प्राप्त होती रहता हैं उनका दैनिक जीवन एक प्रकार से बिल्कुल ही बदल जाता है; क्योंकि इनकी सहायता से वे ग़रीब लड़कों से जिस प्रकार को चाहें सेवा ले सकते हैं ।
बड़े होने पर इन विद्यार्थियों की इच्छा यदि और पढ़ने को हुई और परिस्थितियाँ प्रतिकूल न हुई तो वे विहारसंघ की ओर से बने हुए चार विद्यालयों में से किसी एक में नाम लिखा लेते हैं ।
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