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प्राचीन तिब्बत
बड़ी देर तक पूजन-आराधन होता रहा। इसके बाद सबको पीन को चाय दो गई। तिब्बती लोग गरम-गरम चाय में मक्खन और नमक डालकर पीते हैं। इसे वे बहुत पसन्द करते हैं।
तिब्बत की प्रथा के अनुसार हर एक जन अपने व्यवहार के लिए अपना प्याला अलग रखता है। किसी को विहार के भीतर खूबसूरत चीनी मिट्टी या चाँदी के बढ़िया प्यालों को लाने की आज्ञा नहीं है। सब प्याले लकड़ी के बने हुए होते हैं-सादे सीधे और बगर किसी नकाशी के। __ बड़ी-बड़ी धन-सम्पन्न गुम्बाओं में चाय के साथ-साथ मक्खन का व्यवहार होता है। भिक्ष लोग भोज में शरीक होने के लिए आते हैं तो अपने साथ एक-एक छोटा सा पात्र लाना नहीं भूलते। इसमें वे चाय के ऊपर उतराये हुए मक्खन को उतार लेते हैं। इसे वे लोगों के हाथ बेंच देते हैं। फिर यही मक्खन या तो चाय में दुबारा डालने के काम आता है या इससे लोग अपने घर के दिये जलाते हैं। ____ बड़ो-बड़ी गुम्बाओं में धनी यात्रियों या वहीं के बड़े लामाओं की ओर से ऐसे कई भोज दिये जाते हैं, जिनमें भिक्षुगणों को खाने के लिए तरह-तरह के माल और कभी-कभी दक्षिणा में भारी रकम भी प्राप्त होती है।
तिब्बत में बौद्ध धर्म का जो प्रचलित रूप देखने में आता है उसमें और जैसा लङ्का, चीन, जापान आदि देशों में है-उसमें बहुत अन्तर है। यहाँ के विहार भी अपने ढंग के अनूठे ही होते हैं। तिब्बती भाषा में विहार को 'गुम्बा' कहते हैं जिसका अर्थ होता है, "निर्जन स्थान में कोई घर"। यह नाम बहुत कुछ ठीक भी है।
मानव-बुद्धि से परे अपर लोक को सफलता पूर्ण विजय, आत्म-मीमांसा, ब्रह्मज्ञान और प्राकृतिक भूत-तत्त्वों पर अधिकार
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