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प्राचीन तिब्बत
सूनेपन का अनुभव किया हो । होने का अनुभव ही नहीं होता । बँटाये रखती हैं। उन्हें अपने काम की चीजों के कुछ सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता ।
वास्तव में इन्हें अपने अकेले बहुत सी बातें उनके ध्यान को अतिरिक्त और
अपने एकान्तवास के समय में ये त्साम्सपा या रितोपा जिन अभ्यासों में व्यस्त रहते हैं वे एक नहीं अनेक हैं और भिन्नभिन्न प्रकार के होते हैं। उन्हें इकट्ठा करके उनकी एक सूची बना देना एक असम्भव सी बात है; क्योंकि इनमें से बहुतों को आज तक संसार का कोई एक ही व्यक्ति जान सकने में असमर्थ रहा है।
इनमें से बहुतेरे तो अपना समय एक मन्त्र के हजारों नहीं बल्कि लाखों बार के जाप में ही बिता देते हैं। कभी-कभी यह संस्कृत भाषा का कोई मन्त्र होता है जिसका एक शब्द भी उनकी समझ में नहीं आता और कभी-कभी तिब्बती भाषा का ही कोई सूत्र होता है जिसका अर्थ भी बहुधा उनकी समझ से बाहर ही रहता है ।
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सबसे अधिक प्रचलित मन्त्र वही 'ओ मणि पद्मे हुँ' वाला है लगभग सभी विदेशी यात्रियों और लेखकों ने अपनी पुस्तकों में इस मन्त्र का उल्लेख किया है, पर शायद ही इनमें से किसी एक ने इसका असली तात्पर्य समझा हो । आज तक अधिकांश पाश्चात्य विद्वान् पहले अक्षर 'ओ' का अनुवाद सामान्य विस्मयसूचक शब्द 'आह' (Ah ! ) में करते आये हैं और अन्तिम शब्द 'हुं' का मतलब आमोन ( Amen ) लगाते हैं।
एक 'ओम्' शब्द के अर्थों पर भारतवर्ष में बहुत सा साहित्य मौजूद है। इसमें लौकिक, अलौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार के अर्थ आ जाते हैं। ओम् का अभिप्राय त्रिदेव ( ब्रह्मा, विष्णु और महेश से हो इससे ब्रह्माण्ड का अद्वैत
सकता है।
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