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अध्यात्म की शिक्षा
१४७ से दूर-पुराने ढाँचे के बने हुए घरों में धार्मिक प्रवृत्ति के महत्त्वाकांक्षी कट्टर लामा नालजोर्पा वास करते हैं। कहना नहीं होगा कि सभी साम्सपा और रितोद्वासी ऋषि और महात्मा नहीं होते। व्यर्थ के ढोंग, झूठे और पाखण्डी साधु बहुत पहले से तिब्बती साधुओं की जमात में मिले हुए हैं। गोमछेन के
आवरण में कई घूमते हुए ठग सीधे-सादे देहातियों और भोले-भाले गड़ेरियों को तरह-तरह के लालच देकर उनकी आँखों में धूल झांकते और अपना उल्लू सीधा करते हैं। एक पश्चिम की
ओर का व्यक्ति कह सकता है कि थोड़े-बहुत नाम के लिए या कुछ पैसों के लालच में आकर इनमें से बहुत कम लोग साधुओं का सा रूखा और कड़ा जीवन व्यतीत करने के लिए राजी होते होंगे। लेकिन इसे तिब्बती पहल से देखना चाहिए। पाश्चात्य दृष्टिकोण से यह जरूर कुछ मॅहगा पड़ता है। __पश्चिम के लोगों का विश्वास है कि कोई आदमी अधिक काल तक अकेला बिना किसी से बाल-चाल चुपचाप नहीं रह सकता
और कोई अगर ऐसे दुस्तर कार्य को करने का दुःसाहस करेगा तो या तो वह एकदम मूखे ही बन जायगा या सिड़ी हो जायगा ।
लेकिन ये तिब्बती संन्यासी बीस-बीस तीस-तीस वर्ष तक अकले बिना किसी से बोल-चाले एकान्तवास निभा देते हैं। और फिर भी पागलपन का उनमें लेशमात्र भी आभास नहीं आता। यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। सम्भवतः पश्चिमवासियों की उपर्युक्त धारणा लाइट-हाउस के पहरेदारों, भग्न-पोत के बचे हुए-सुनसान द्वीपों में जा पड़नेवाले यात्रियों या बन्दीगृह में डाल दिये हुए कैदियों की कहानियों पर निर्भर है। आज तक मैंने किसी तिब्बती को यह कहते हुए नहीं सुना कि उसे आरम्भ के दो-चार दिन भी काटने में कठिनाई पड़ी हो या उसने कुछ
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