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प्राचीन तिब्बत
इन साम्सखाड़ के विषय में एक बात यह याद रखने के योग्य है कि इनमें वे ही लोग आश्रय लेते हैं जो किसी न किसी धार्मिक संघ से कुछ सम्बन्ध रखते हैं। इनमें से अनेक लगातार कई वर्ष साम्सखाड़ में बिता देते हैं । प्रायः एकान्तवास की अवधि तीन साल, तीन महीने, तीन सप्ताह और तीन दिन तक होती है। यही अवधि कुछ लोग एक बार समाप्त करके फिर दो या तीन बार दुहराते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो जीवन पर्यन्त इन साम्सखाड़ में रहने का निश्चय कर लेते हैं ।
एक और प्रकार का एकान्तवास, जो इससे भी अधिक कड़ा होता है, बिल्कुल अन्धकार में किया जाता है। अँधेरे में ध्यान करने की प्रथा केवल लामा-धर्म में ही नहीं, बल्कि सभी बौद्ध देशों में है। इस ढक के कई कमरे मैंने ब्रह्मा में देखे हैं और सागेन पहाड़ी में स्वयं कुछ दिन मैं इन कोठरियों में बिता चुकी हूँ। लेकिन ब्रह्मा में और अन्य देशों में लोग इस प्रकार की अँधेरी कोठरियों में केवल कुछ घण्टों के लिए प्रवेश करते हैं, जब कि तिब्बत के त्साम्सपा अपने साम्सखा में अपने को वर्षों के लिए खुशी-खुशी बन्द कर लेते हैं । कभी-कभी तो लोग मृत्यु- पर्यन्त अपने को इन नत्रों में जीवित गाड़ रखते हैं, यद्यपि ऐसे लोगों की संख्या अधिक नहीं होती।
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बिल्कुल अँधेरा कर लेने के लिए ये कोठरियाँ ज़मीन के नीचे तहखाने के रूप में बनाई जाती हैं। इनमें खिड़कियाँ तो नहीं होतीं, लेकिन हाँ ऊपर हवा के आने-जाने के लिए ऊँची चिमनियाँ अवश्य रहती हैं। इन चिमनियों के रास्ते से सिर्फ हवा जाती है, प्रकाश नहीं जाने पाता। कोठरियों में इतना अंधेरा रहता है कि अपना हाथ नहीं सूझता । पर कुछ दिनों के बाद त्साम्सपा की आँखें उस अधेरे से अभ्यस्त हो जाती
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