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अध्यात्म की शिक्षा
१४३ कितनी भी सावधानी से काम लिया जाय, लोगों के इधर-उधर आते-जाते रहने से और घर के सांसारिक वातावरण से इतने अधिक सन्निकट होने के कारण साम्सपा के कार्य में थोड़ा-बहुत विघ्न पड़ ही जाता है।
कुछ लामा तो विहारों की शान्ति और नीरव वातावरण को भी काफी नहीं समझते। बहुत सो गुम्बाओं की ओर से ऐसे एकान्तवासप्रेमियों की सुविधा के लिए अलग से कुछ दूर पहाड़ो पर छोटे-छोटे घर बने होते हैं। इन घरों को 'साम्सखा कहते हैं। कभी-कभी तो ये एकान्तगृह विहारों से इतनी दूरी पर बनाये जाते हैं कि उनके बीच में कुछ दिनों के मार्ग का अन्तर रहता है।
प्रायः सभी त्साम्सखाङ् दो भागों में बँटे होते हैं। एक कमरा एकान्तवासी के उठने-बैठने और सोने के काम में आता है
और दूसरा भोजनालय का काम देता है। इसी में उसका नाकर भी रहता है। __ जब त्साम्सपा किसी आदमो के सामने नहीं होता तो उसका नौकर उससे अलग कुछ दूर की एक झोंपड़ी में रहता है । साम्सपा के कमरे में एक जंगला खोल दिया जाता है और इसी रास्ते से वह अपना भोजन पाता है। पूरा भोजन तो दिन भर में सिर्फ एक बार पहुँचाने का नियम है पर मक्खन पड़ी हुई चाय कई बार लाई जा सकती है। अगर लामा 'लाल टोपी' वाले किसी सम्प्रदाय का अनुयायी हुआ तो चाय की जगह पर वह जौ की मदिरा का प्रयोग करता है। तिब्बतियों में प्रायः एक जौ का थैला अपने साथ रखने का चलन होता है। इस थैले में से वह, जब उसकी इच्छा होती है, दो-एक मुट्ठी भर निकालकर चाय या जो की मदिरा के साथ फाँक जाता है।
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