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इच्छा-शक्ति और उसका प्रयोग १२९ अपने एक शिष्य को मानसिक आदेश दिया था, उसका जैसे का तैसा वर्णन यहाँ मैं पाठकों के कौतूहल के लिये देती हूँ। ___ यौङ्गदेन और मैं रात भर एक ठण्ढे मैदान में सोये थे। हमें रात को सर्दी खूब लगी थी और सुबह भी ईंधन की कमी के कारण बिना चाय पिये ही हमें फिर चल देना पड़ा था। भूखे, प्यासे हम दोपहर तक चलते रहे । सड़क के किनारे हमें एक लामा अपनी दरी पर बैठा दिखाई पड़ा जो अभी-अभी अपना दोपहर का खाना समाप्त कर रहा था । लामा को देखते ही मन में कुछ श्रद्धा सी उत्पन्न हो जाती थी। उसके साथ तीन त्रापा और भी थे जो शायद उसके चेले ही थे; क्योंकि उनकी पोशाक नौकरों की सी नहीं थी। चार फन्दे-पड़े घोड़े भी आस-पास घास चर रहे थे। ___ इन लोगों के साथ बहुत सी लकड़ी थी और चाय की केटली अब भी आग पर गरम हो रही थी। ___ हम लोग भेस बदलकर यात्रा कर रहे थे। हमारा लिबास निधन यात्रियों का सा था। अस्तु, हमने लामा को सादर प्रणाम किया। हो सकता है, चाय की केटली को देखकर हमारे मन में जो भाव हो आये थे उन्हें उसने हमारे चेहरों पर ज्यों का त्यों पढ़ लिया हो। उसने धीरे से कहा-"निन्जे* !' और तब हमें पास ही बैठ जाने का इशारा कर दिया। बैठते ही उसने हमसे अपना प्याला | निकालने को कहा।
एक त्रापा ने हमारे प्यालों में चाय उँडेली और सामने त्साम्पा लाकर रख दिया। इसके बाद वह अपने साथियों को
* तिब्बती लामा अक्सर इस शब्द का प्रयोग करते हैं। इसक अर्थ है "ाह वेचारे बदनसीब !" "ओह ! अफसोस" ____ हर एक तिब्बती अपना प्याला अपने साथ रखता है क्योंकि दूसरे किसी का पात्र वह व्यवहार में नहीं ला सकता।
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