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________________ इच्छा-शक्ति और उसका प्रयोग १२१ दोनों उँगलियाँ - बीचवाली और चौथी - अन्दर को हथेली के नीचे मुड़ी रहती हैं । पहले प्राणायाम के द्वारा नासिका -मार्ग को शुद्ध वायु से स्वच्छ कर लेते हैं फिर क्रम से अहङ्कार, कांध, घृणा, लाभ, ईर्ष्या और मोह का 'रेचक' के साथ मस्तिष्क से बाहर निकाल देते हैं। फिर एक 'पूरक' होता है, जिसमें सभा ऋषि-मुनियों का आशीर्वाद, भगवान बुद्ध की आत्मा, पाँचों बुद्धियाँ और इस लोक में जो कुछ शिवम् और सुन्दरम् है उसका अपने में 'आविर्भाव' किया जाता है | इसके अनन्तर कुछ देर तक मस्तिष्क को पूर्णतः एकाग्र करके अन्य सब भावों और मनोविकारों को एकदम दूर कर दिया जाता है। तब इसी शान्ति - पूर्ण स्थिति में अपनी नाभि में एक कमल की कल्पना करनी होती है। इस कमल पर सूर्य के समान प्रभा-पूर्ण शब्द 'राम' दिखलाई पड़ता है । 'राम' के ऊपर 'मा' होता है और 'मा' में से दोर्जी नालजोमी ( एक देवी) निकलती है। जैसे ही देवी नालजोर्मा दिखलाई दे, उसी क्षण तत्काल अपने को उसमें मिला देना चाहिए। देवी के प्रकट होते ही नाभि में 'आ' अक्षर स्पष्ट रूप से दिखलाई देता है। इस 'आ' के समीप ही एक छोटा सा अग्निकुण्ड होता है। 'पूरक' की सहायता से और मनोयोग के द्वारा इस अग्निकुण्ड को प्रज्वलित करना होता है जिसकी भयानक लपटों में नालजोर्पा अपने आपको घिरा हुआ देखता है। शुरू से आखीर तक बराबर इस अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए मन को एकाग्रता, प्राणायाम की तीनों क्रियाएँ ( पूरक, कुम्भक और रेचक ) और मन्त्र का क्रमबद्ध जाप नितान्त आवश्यक होता है । समस्त मानसिक शक्तियाँ केन्द्रीभूत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, watumaragyanbhandar.com
SR No.034584
Book TitlePrachin Tibbat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamkrushna Sinha
PublisherIndian Press Ltd
Publication Year
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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