________________
१२०
प्राचीन तिब्बत 'त्यूमो' का शाब्दिक अर्थ होता है गरमो'। लेकिन तिब्बती भाषा में अब इस शब्द का व्यवहार इस साधारण गर्मी के अर्थ में नहीं किया जाता। त्यूमो का अभिप्राय एक विशेष प्रकार की अग्नि से समझना चाहिए जिसकी गरमी प्राणवायु में मिलकर समस्त शरीर में 'सा' अर्थात् नाड़ियों के द्वारा फैल जाती है।
एक बार इसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाने पर फिर फर या ऊन का कोई कपड़ा शरीर पर डालना और आग तापना एकदम मना है। इस विद्या का अभ्यास प्रतिदिन ब्राह्म मुहूर्त में उठकर प्रातःकाल किया जाता है। सूर्य निकल आने के पहल त्युमो के खास-खास अभ्यास समाप्त हो जाने चाहिए, क्योंकि यह समय ध्यानस्थ होने के लिए सर्वथा उपयुक्त होता है। बाहर खुली हवा में केवल एक पतला सूती कपड़ा पहनकर या बिल्कुल वस्त्र-हीन होकर इसका अभ्यास किया जाता है। ___ शुरू-शुरू में बैठने के लिए एक चटाई को आसनो सबसे अच्छी होती है। टाट के टुकड़े या काठ के स्टूल का भी इस्तेमाल होता है। कुछ अभ्यास हो जाने पर शिष्य लोग यांही भूमि पर बैठ जाते हैं। और अधिक योग्यता आ जाने पर तो लोग साता और तालाबों में जमी हुई बर्फ पर ही बैठना ठीक समझते हैं। अभ्यास आरम्भ करने के पहले कोई वस्तु खानी पीनी नहीं चाहिए, विशेष कर किसी गरम तरल पदार्थ का पेट में जाना तो एकदम मना है। __बैठने के दो तरीक़ हैं। पाल्थी मारकर ( पद्मासन) या पाश्चात्य ढङ्ग के अनुसार दा जानू होकर जिसमें दोनों हाथ सामने के दोनों घुटनों पर रक्खे होते हैं और अँगूठा, तर्जनी और कनिष्ठिका (सबसे छोटी उँगली ) आगे को निकली रहती हैं और शेष
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, wwwafumaragyanbhandar.com